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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.17 गणावच्छेदिका श्रीअमृतांजी प्रेमांजी (1969 के लगभग) आपके विषय में इतना ही संकेत मिलता है कि ये गणावच्छेदिनी थीं और 1969 तक विद्यमान थीं। ये सात साध्वियाँ थीं। इनमें साध्वी रलीजी भी हुई हैं, उन्होंने ढाल जिनदत्त की, विर्त मंडली चोपयइ (सं. 1960) कायस्थिति का थोकड़ा (सं. 1966) आदि लिखा, जिसकी प्रतिलिपियां उपलब्ध हैं।13 6.3.2.18 श्री गंगादेवीजी (सं. 1923) वि. सं. 1923 में 11 वर्ष की लघु अवस्था में आपने महान तेजस्विनी गणावच्छेदिका श्री निहालदेवीजी के पास श्री जीवादेवीजी के साथ जालंधर में दीक्षा अंगीकार की। आप स्वभावतः दक्ष एवं मेधावी थी, अतः स्वल्पकाल में ही सभी आगमों की ज्ञाता बन गई। आपने पंजाब, मारवाड़, बम्बई, देहली, यू.पी. आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर हजारों नर-नारियों को अपनी ज्ञान-गंगा से पवित्र बनाया था। आपका त्याग-वैराग्य बहुत उच्चकोटि का था। आपकी शिष्याओं में -जमुनादेवीजी, लाजवंतीजी (श्री खजानचंदजी महाराज की बहन) शिवदयालीजी, रलीजी आदि प्रमुख थी। अम्बाला में संवत् 1990 को आपका देहावसान हुआ।14 6.3.2.19 प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी (वि. सं. 1924-1996) स्थानकवासी पंजाब परम्परा की साध्वियों में प्रवर्तिनी साध्वी श्री पार्वतीजी का नाम शीर्षस्थान पर है। आपका जन्म आगरा जिले के भौंडपुरी ग्राम में संवत् 1911 में पिता श्री बलदेवसिंहजी व माता धनवन्तीजी चौहान के यहां हुआ। जैन मुनि श्री कंवरसेनजी की प्रेरणा से संवत् 1924 चैत्र सुदी एकम को श्री हीरादेवीजी के सान्निध्य में 'अलम' गांव (कांधला) में अन्य 3 कुमारियों-मोहनिया जी, सुन्दरिया जी, जीवोजी के साथ आपकी दीक्षा हुई। किंतु ज्ञान एवं क्रिया का विशिष्ट लाभ अर्जित करने के लिए संवत् 1930 में आप पंजाब के पूज्य अमरसिंहजी की साध्वी श्री खूबाजी, मेलोजी के संघ में सम्मिलित हो गई थीं। आप बड़ी आचारनिष्ठ साध्वी थीं। पंजाब के साध्वी संघ पर तो आपका प्रभुत्व था ही, परन्तु श्रमण संघ भी आपकी आवाज का आदर करता था। आपकी प्रचण्ड देह और व्याख्यान छटा बड़ी प्रभावोत्पादक थी। अपनी प्रभावशाली वाणी से कई बार आपने अन्य मताबलंबियों से शास्त्रार्थ किये। लाला लाजपतरायजी से 'सत्यार्थ प्रकाश' विषय पर कई शास्त्रार्थ हुए, आपकी स्पष्टता, निर्भीकता से प्रभावित होकर लालाजी आपको अपनी 'धर्ममाता' कहते थे। जालंधर में वि. सं. 1967 में आपके उपदेशों से प्रभावित होकर 8 देशी रियासत के राजाओं ने मांस, शराब और शिकार का आजीवन त्याग कर दिया था। जयपुर के राजकुमार ने भी अपने जीवन को व्यसन मुक्त और धर्ममय बनाया। आपकी तर्कप्रवण प्रज्ञा, प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित होकर आचार्य श्री मोतीरामजी म. ने वि. सं. 1951 चैत्र कृ. 11 को लुधियाना में 75 नगर के संघों के समक्ष पंजाब की सर्वप्रथम प्रवर्तिनी के पद पर आपको नियुक्त किया, इससे पूर्व 200 वर्षों के इतिहास में पंजाब में किसी को प्रवर्तिनी पद प्राप्त नहीं हुआ था। आपने पंजाब के अतिरिक्त हरियाणा, पाली, उदयपुर, जयपुर आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में भी 113. पंजाब श्रमणसंघ गौरव, पृ. 208-9 114. (क) वही, पृ. 205 (ख) संपा. - तिलकधर शास्त्री, संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 220 573 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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