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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ आपके पांव में एक भयंकर फोड़ा हुआ, उसी स्थिति में आपने तीन साध्वियों के साथ अमृतसर की ओर विहार किया। साथ की तीनों साध्वियाँ आपको इस असह्य पीड़ा की स्थिति में 'रमद्दीपिंड' नामक गांव में छोड़कर विहार कर गईं। आप आहार-पानी लाने में असमर्थ थीं, अत: 10 दिन के चौविहारी उपवास का प्रत्याख्यान कर लिया। लाहौर में विराजित खूबांजी और शिष्या मेलोजी को जब पता चला तो वे उग्र बिहार कर दस दिन में 'रमद्दी' पहुंची उनके अत्यंत आग्रह करने पर दस दिन के पश्चात् आपने जल ग्रहण किया, किंतु तिविहारी संथारा कर लिया। इस प्रकार 31 दिन के संथारे के साथ सं. 1903 में समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। आपने कुल 6 वर्ष संयम पालन किया। जो साध्वियाँ उन्हें अकेला छोड़ गई थीं, उन्हीं दिनों उनमें से दो साध्वियों का अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। आपकी 3 शिष्याएँ हुई, जिनसे आगे चलकर साध्वी संघ की काफी अभिवृद्धि हुई- श्री बथोजी (सं. 1898), श्री ताबोजी (सं. 1900), श्री मेलोजी (सं. 1901) 107 6.3.2.12 श्री सदाकुंवरजी (सं. 1898) ___आप महासती खेमाजी की शिष्या थी, आपकी लिपि बड़ी सुंदर थी। आपके द्वारा लिपिकृत 'तीर्थंकर नेमनाथ का ब्याहला' वि. सं. 1898 का उपलब्ध होता है। 08 6.3.2.13 श्री ताबोजी (सं. 1900) आपका जन्म जालंधर के एक समृद्ध किसान परिवार में हुआ, साध्वी श्री मूलांजी के पास संवत् 1900 में आप दीक्षित हुई। और जिनशासन में अच्छी प्रतिभासंपन्न साध्वी के रूप में विख्यात हुई। आपका स्वर्गवास रोहतक में 21 दिन के संथारे के साथ हुआ, स्वर्गवास के पूर्व ही आपको ज्ञात हो चुका था कि मेरा देहत्याग तीन साधुओं के आने पर होगा। वैसा ही हुआ, तीन संत पधारे, उन्हें वंदना करते हुए आपने देह त्याग किया। श्री जीवनीजी, सुषमाजी और जयदेवी जी ये तीन सुयोग्य शिष्याओं की आप गुरूणी बनीं। श्री जयदेवीजी रावलपिंडी के ओसवाल परिवार की कन्या थीं। सं. 1903 में रमद्दी गांव में दीक्षा ग्रहण की थी, आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री पानकुंवरजी एवं गंगीदेवीजी (छोटी) 109 6.3.2.14 श्री मेलोजी (सं. 1901-64) आप संवत् 1880 में गुजरानवाला निवासी पिता पन्नालालजी ओसवाल के यहां जन्म लेकर 1901 में कांधला में साध्वी मूलांजी से दीक्षित हुईं। आपके जीवन में स्वाध्याय व संयम के साथ सेवा और तपस्या का विशिष्ट गुण था। स्वभाव से विनम्र एवं क्रियापालन में अत्यंत कठोर थी। लगभग 84 वर्ष की दीर्घायु में 63 वर्षों तक धर्मप्रचार करती हुई संवत् 1964 रायकोट नगर लुधियाना में मृगशिर शुक्ला प्रतिपदा को प्रात:काल समाधि पूर्वक स्वर्गस्थ हुईं। श्री चम्पाजी और प्रवर्तिनी पार्वतीजी महाराज आपकी ही शिष्या थी।110 107. वही, पृ. 174 108. वही, पृ. 365 109. लेखिका-श्री सुन्दरीदेवीजी म., महासती मथुरादेवीजी जीवन चरित्र, पृ. 121 110. पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 175 571 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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