SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 632
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.3.2.9 श्री शेरांजी (सं. 1875-1910) आपका जन्म वि. सं. 1824 में अमृतसर निवासी लाला खुशहालसिंहजी जौहरी के यहां हुआ। आचार्य श्री अमरसिंहजी के पिता सेठ बुधसिंहजी जौहरी की आप भुआ थी। स्यालकोट के एक समृद्ध परिवार में आप एकमात्र पुत्रवधु बनकर आई, किंतु शीघ्र ही विधवा हो गई। 51 वर्ष की दीर्घायु तक आप संयमी जीवन के लिये प्रयत्नरत रहीं, अंततः वि. सं. 1875 में श्री सजनाजी के प्रभाव से दीक्षा संपन्न हुई। आपका आगम-ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था, आपने संयम-मर्यादा में कभी शैथिल्य नहीं आने दिया। नाम के अनुरूप ही आप शेरनी की भांति साहसी, पराक्रमी और धर्मोद्योत करने वाली थीं। आचार्य अमरसिंहजी महाराज एवं आचार्य श्री सोहनलालजी महाराज जैसे साधु-शिरोमणि आपकी ही प्रेरणा से जैन समाज को प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि जब आचार्य अमरसिंहजी महाराज गृहस्थावस्था में थे, तो उनके तीनों ही पुत्रों का देहान्त हो गया, साथ ही जीवन-संगिनी ज्वालादेवी का भी। उसी समय महासती शेरांजी का वहाँ पदार्पण हुआ, उनकी वैराग्यवर्द्धक वाणी सुनकर अमरसिंहजी को संसार की अनित्यता एवं पुद्गल की विचित्रता का ज्ञान हुआ। शेरांजी ने उन्हें संयम मार्ग ग्रहण करने की प्रेरणा दी उनकी प्रेरणा से श्री अमरसिंहजी एवं उनके साथी श्री रामरत्नजी तथा श्री जयंतिदासजी ने वि. सं. 1898 में पंडित श्री रामलालजी महाराज के पास दिल्ली, बारहदरी जैन स्थानक में दीक्षा ग्रहण की। इसी प्रकार पसरूर में एक बार आप प्रवचन दे रही थीं, श्री सोहनलालजी धर्मसभा में अग्रिम पंक्ति में पद्मासन से बैठकर एकाग्रता से प्रवचन श्रवण कर रहे थे, महासतीजी की दृष्टि उनके पांव की रेखा पर पड़ी तो उन्होंने कहा-'तुम अगर दीक्षा लोगे तो धर्म की महान प्रभावना करोगे।' उनकी प्रेरणा से श्री सोहनलालजी ने बारह व्रत स्वीकार किये और अंत में आचार्य अमरसिंहजी महाराज के पास वि. सं. 1933 में दीक्षा अंगीकार की। इस . प्रकार आप महान् धर्मप्रभाविका साध्वी जी थीं। 35 वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन करती हुई वजीराबाद में संवत् 1910 में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री पूर्णदेवी एवं श्री गंगी जी।105 6.3.2.10 श्री खूबांजी (सं. 1881-1931) ___ श्री खूबांजी जाति से राजपूत थीं, दिल्ली में इनका विवाह हुआ, वैधव्य के पश्चात् ये वि सं. 1881 में महार्या ज्ञानांजी के पास दीक्षित हुईं। ये सरल हृदय की सेवाभाविनी साध्वी थीं, वर्षों तक सुनाम में रहकर गुरूणी की सेवा की। ये पंजाब के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी विचरी थीं। इनका देहावसान वि. सं. 1931 टांडा नगर (पंजाब) चातुर्मास में हुआ। आपकी 5 शिष्याएँ थीं- (1) हीराजी (2) दीपाजी (3) मूलांजी (4) आशाजी (5) निहालदेवीजी। इनमें हीरांजी जाति से माली परिवार की थीं और संवत् 1882 में दीक्षित हुई थीं। दीपाजी की दीक्षा 1883 में हुई व जाति से क्षत्रिय थीं इन दोनों का शेष जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं है।105 6.3.2.11 श्री मूलांजी (सं. 1897-1903) आपका जन्म कुम्भकार परिवार में हुआ था। तपस्वी आचार्य श्री छजमलजी ऋषि आपके मौसा थे। वि. सं. 1897 में आप श्री खूबांजी के पास दीक्षित हुई। आप अत्यन्त सहनशीला एवं सयंमनिष्ठा साध्वी थीं। एकबार 105. वही, पृ. 186 106. वही, पृ. 172 570 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy