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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास किया। दो साध्वी प्रमुखा बनीं, दो ने छह आचार्यों का शासनकाल देखा। उक्त विभूतिलसित प्रमुखा श्रमणियों का परिचयात्मक विवरण अग्रिम पंक्तियों में दे रहे हैं। 7.5.1 श्री मलूकांजी 'डेह' (सं. 1887-1931 ) 3/22 श्री मलूकांजी जाति से सरावगी थीं, पीहर सेठी गोत्रीय व ससुराल कासलीवाल था । इन्होंने मृगशिर कृष्णा 11 को लाडनूं में दीक्षा स्वीकार की। छहमासी तप करने वाली साध्वियों में मलूकांजी का नाम सर्वप्रथम आता है। इन्होंने 'आछ' के आधार पर दो बार छहमासी एवं दो बार चारमासी तप किया। इसके अतिरिक्त आछ के आगार से 132 बेले, 30 तेले, 19 चौले, 14 पचोले, 4 अठाई, 4 दसए 1 ग्यारह, 1 तेरह, दो मासखमण, एक 32, एक 35, एक 41 और एक 45 उपवास किये। पानी के आगार से सात बार 30 उपवास किये। इस प्रकार ये घोर तपस्विनी साध्वी थीं। 7.5.2 श्री गेनांजी 'लाडनूं' (सं. 1887-1937 ) 3/24 आपका ससुराल लाडनूं के कोठारी परिवार में और पीहर फिरोजपुर के डूंगरवाल परिवार में था। पति वियोग के पश्चात् आपकी दीक्षा महावीर जयंती के दिन लाडनूं में हुई। आप भी दीर्घ तपस्विनी थीं। आपने तीन बार छहमासी एक बार चौमासी और अनेक बार मासखमण की तपस्या की। आप श्री दीपांजी के संघाड़े में थीं। 7.5.3 प्रथम साध्वी प्रमुखा श्री सरदारांजी 'फलौदी' (सं. 1897-1927 ) 3/71 आप चूरू (थली) निवासी सेठ जैतरूपजी कोठारी की पुत्री थीं, दस वर्ष की अवस्था में फलौदी निवासी श्री सुलतानमलजी ढड्ढा के सुपुत्र जोरावरमलजी के साथ सं. 1875 में विवाह हुआ, पांच मास पश्चात् ही पति का देहान्त हो गया, अतः आप बाल ब्रह्मचारिणी ही रहीं। आपने बाल्यवय से ही अनेक त्याग-प्रत्याख्यान ग्रहण कर लिये थे, गृहस्थावस्था में धन्ना अणगार के 80 बेले, परदेशी राजा के 12 बेले व एक तेला, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के तीन-तीन तेले, चातुर्मास मे एकांतर तप, 7 तेले 5 चौले, छह, सात, आठ का तप एक बार, एक वर्ष तक चौविहार बेले- बेले और उसमें प्रत्येक मास चौविहार चौला या पंचोला करने का संकल्प किया। इसमें भी कुछ मास चौविहारी बेले, तीन मास चौविहारी तेले और एक मास चौविहारी चौले तथा ऊपर 10 दिन का उपवास किया। आप रात्रि को शीतकाल में एक ओढ़नी व ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर चार-चार सामायिक आदि कर कायक्लेश तप करती थीं। दीक्षा के लिये लंबे समय तक इस प्रकार संघर्षों से जूझकर अंततः स्वयं के हाथों से केशलुञ्चन कर आप युवाचार्य श्री जीतमलजी के द्वारा मृगशिर कृष्णा 5 सं. 1897 को उदयपुर में दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् भी आपने उग्र तपस्याएँ कीं, अनेकों कन्याओं व महिलाओं को प्रतिबोधित कर संयमीजीवन की शिक्षा-दीक्षा दी। आपके समय में तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक नवीन क्रांतिकारी कार्य हुए (i) श्री मज्जयाचार्य ने सं. 1910 में आपको सर्वप्रथम विधिवत् रूप से प्रमुखा साध्वी के पद पर नियुक्त किया। इससे पूर्व यह पद्धति नहीं थी। (ii) आपके समय से साध्वियाँ निरंतर आचार्यों के साथ चातुर्मास करने लगीं, उसके पूर्व यह नियम नहीं था । (iii) प्रतिवर्ष चातुर्मास के पश्चात् आचार्य दर्शन की प्रणाली का शुभारम्भ भी आपसे ही हुआ । Jain Education International 812 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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