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________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ इन साध्वियों की समयावधि का उल्लेख उसमें नहीं है तथापि ये साध्वियाँ सं. 1927 के लगभग हुई थी, ऐसा संभावित है। 403 मेवाड़ परंपरा में प्रवर्तिनी श्री नन्दुजी, धन्नाजी, सुहागांजी, सरूपांजी, तपस्विनी श्री कस्तूरांजी आदि साध्वियाँ प्रभावशालिनी हुई हैं, किन्तु उनका इतिवृत ज्ञात नहीं हो सका । 6.5.10.1 श्री नगीनाजी (सं. 1920 के लगभग ) मेवाड़ परंपरा की साध्वियों में नगीनाजी का स्थान सर्वोपरि है। इनका जन्म वि. सं. 1900 के लगभग पोटला ग्राम (मेवाड़) में भोपराजजी पामेचा के यहाँ में हुआ। 13 वर्ष की उम्र में विवाह और 20 वर्ष की वय में वैधव्य भोग लेने पर इनकी वैराग्य भावना जागृत हुई। अनेक संघर्षों को सहने के पश्चात् महासती नंदूजी के पास देलवाड़ा में इनकी दीक्षा हुई। ये शास्त्र - चर्चा में अति निपुण थीं। स्थानकवासी श्रद्धा से हटे हुए 40 परिवारों को इन्होंने पुनः धर्म में स्थिर किया था। इनकी अनेक शिष्याएँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी हुई हैं। उनमें चन्दूजी, मगनाजी, गेंदकुंवरजी, कंकूजी, प्यारांजी, फूलकुंवरजी, सुन्दरजी देवकुंवरजी और सरेकंवरजी के नामों का उल्लेख मिलता है। चन्दूजी की इन्द्राजी और वरदूजी ये दो शिष्याएँ थीं। इन्द्राजी विचित्र अभिग्रही, तपस्विनी साध्वी थीं, उन्होंने पलाना में 45 दिन की तपस्या पर 'काँटे' का अभिग्रह, रायपुर में भतीजे द्वारा 'मेवे की खिचड़ी' बहराने का अभिग्रह, आकोला में मूंछ के बाल का अभिग्रह, विवाह के अवसर पर 'भेष का अभिग्रह आदि लिये । नगीनाजी की ही एक साध्वी ने सादड़ी में 13 बोल का अभिग्रह किया। उनमें कुमारिका कन्या, खुले बाल, कांसी (एक धातु) का कटोरा, सच्चा मोती, नया वस्त्र, भाल पर बिंदी आदि बोल थे। श्री रंगलाल जी तातेड़ ने संवत् 1937 की अपनी एक ढाल में नगीनाजी की सतियों की तपस्या का उल्लेख करते हुए कहा कि संवत् 1933 में एक सतीजी की 75 दिन की तपस्या पर केसर की वर्षा हुई । सादड़ी में 5 मास और 11 दिन के दीर्घ तप पर 175 मूक पशु बलि से बचाये गये। इसी प्रकार इनकी किसी सती ने 34, 35 किसी ने 66, किसी ने 61, किसी ने तीन मास, किसी ने 88 दिन तक भी तप किये | 404 6.5.10.2 प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी (सं. 1920 के लगभग ) मेवाड़ की साध्वी - परम्परा में मुख्यतया दो धाराएं हैं- एक धारा की प्रतिनिधि श्री नगीनाजी और दूसरी धारा की प्रतिनिधि श्री सरूपांजी हैं। पूज्य एकलिंगदासजी महाराज के समय साध्वी समाज ने इन्हें प्रवर्तिनी पद समर्पित किया। श्री सरूपांजी की शिष्याओं में श्री चम्पाजी, श्री सलेकुंवरजी, श्री लेरकुंवरजी, श्री हगामाजी और सरेकंवरजी (अकोला) मुख्य थे 1405 6.5.10.3 श्री कस्तूरांजी (सं. 1927 के लगभग ) आपके संबंध में विस्तृत ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं है, इतना ही उल्लेख है कि वे तपस्विनी थीं। उन्होंने 21, 26, 13, 19, 41 दिन तक की तपस्याएँ, बेले- बेले पारणे किये, इनकी शिष्याएँ श्री फूलकुंवरजी व उनकी शिष्या श्री श्रृंगारकुंवरजी थीं। जन्म स्थान 'मोलेला' तथा ससुराल 'नाथद्वारा' में था । 406 403. उमेशमुनि 'अणु', श्रीमद् धर्मदासजी म. और उनकी मालव परंपरा, पृ. 113 404. संयम गरिमा ग्रंथ, पृ. 535 श्रीमती रविन्द्रा सिंघवी का लेख 'मेवाड़ की गौरवमयी श्रमणी - परंपरा | 405. वही, पृ. 538 406. वही, पृ. 539 Jain Education International 669 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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