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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
6.5.10.4 श्री श्रृंगारकुंवरजी (1930 के लगभग)
प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी की परम्परा में मेवाड़ में सणगारांजी के नाम से प्रसिद्ध महासती श्री श्रृंगारकुंवरजी सिंहनी सी निर्भीक, स्पष्टवक्ता, समयज्ञ और प्रभावशालिनी साध्वीजी थीं। आप पोटला (मेवाड़) के ओसवालवंशीय सियाल परिवार से प्रवर्जित हुई। शास्त्रीय ज्ञान की तो आप चलती रिती संग्रहालय थीं। पूज्य एकलिंगदासजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को टूटने से आपने ही बचाया।
पूज्य मोतीलालजी महाराज जब आचार्य पद स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए, संघ सभी प्रकार के प्रयत्न करके भी असल हो गया तब आपने उन्हें कहा-"पूत कपूत होते हैं तब बाप की पगड़ी खूटी पर टंगी रहती है।' इस एक वाक्य को सुनते ही पूज्यश्री ने अपना आग्रह छोड़ दिया एवं आचार्य पद ग्रहण किया। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं-श्री दाखांजी (सहाड़ा), श्री झमकूजी (पोटलां), श्री सोहनजी (नाई), श्री मदनकुंवरजी, श्री हरकूजी (भीम), श्री राधाजी, राजकुंवरजी (ओडण), पानजी (नाथद्वारा), श्री वरदूजी, वलावरजी, किशनकुंवरजी (नाई), मगनाजी (राजकरेड़ा) आदि।107
6.5.10.5 श्री धन्नाजी (सं. 1957-2026)
श्री कंकूजी की चार शिष्याएँ-श्री धन्नाजी, सुहागाजी, सुन्दरजी और सोहनजी में ये सर्व ज्येष्ठ थीं। ये खारोलवंशी भूरजी और भगवतबाई की पुत्री थीं, संवत् 1948 के लगभग रायपुर में इनका जन्म हुआ। नौ वर्ष की वय में वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन कोशीथल में इनकी दीक्षा हुई। श्री धन्नाजी आगमज्ञाता, व्याख्यात्री, तत्त्वज्ञानी, सेवा विनय परायणा महासती थीं। अनेक वर्ष मेवाड़ में विचरण करके अंत में संवत् 2026 सनवाड़ में ये स्वर्गवासिनी हुईं। श्री रामाजी, मानाजी, चतरकुंवरजी, सोहनकुंवरजी, सेनाजी, इनकी शिष्याएँ हुईं। श्री सोहनकंवरजी की श्री नाथकुंवरजी, श्री उगमवतीजी (श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' की माता व बहन) तथा कमलाजी तीन शिष्याएँ हुईं।408
6.5.10.6 श्री मोड़ाजी ( -स्वर्ग. सं. 2003)
आप श्री कंकूजी की शिष्या श्री सुहागाजी की शिष्या थीं। नकूम के सहलोत गोत्र में इनका जन्म और बड़ी सादड़ी में विवाह हुआ। वैधव्य के पश्चात् 20 वर्ष की वय में बड़ी सादड़ी में इनकी दीक्षा हुई। मोडाजी भद्रपरिणामी, सख्त, सात्त्विक, आचारनिष्ठ थीं। श्री पेम्पाजी, रतनकुंवरजी, खोड़ाजी, लेरकुंवरजी, राधाजी, रतनजी इनकी शिष्याएँ थीं। संवत् 2003 ज्येष्ठ कृष्णा 11 को हणुंतिया (अजमेर) में ये स्वर्गवासिनी हुईं।409
6.5.10.7 श्री वरदूजी (सं. 1965 के लगभग)
श्री वरदूजी उदयपुर की थीं, सरलता, सादगी, सहिष्णुता संयमप्रियता इनके कण-कण से झलकती थी। अपने जीवन काल में इन्होंने 11 अठाइयाँ तथा काली रानी के तप की एक लड़ी पूर्ण की। ये बेले-बेले पारणे और पारणे 407. वही, पृ. 539 408. वही, पृ. 537 409. वही, पृ. 538
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