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________________ 3.3.1.21 याकिनी महत्तरा ( वी. नि. 1227 के लगभग ) याकिनी महत्तरा का नाम जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्धान, प्रखर प्रतिभासम्पन्न बहुश्रुत आचार्य हरिभद्र के साथ ही प्रसिद्धी को प्राप्त हुआ । इनके जन्म-स्थान, माता-पिता आदि का वर्णन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। जो थोड़ा बहुत परिचय प्राप्त है, वह आचार्य हरिभद्र के साहित्य-ग्रन्थों से ही मिलता है। आचार्य ने स्थान-स्थान पर “ याकिनी महत्तरा सूनु” के नाम स्वयं को प्रकट किया। प्रभावकचरित के अनुसार हरिभद्र चितौड़ में जितारि राजा के पुरोहित थे। अपनी विद्वत्ता के अभिमान में आकर उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "जिसका कहा हुआ समझ नहीं पाऊंगा, उसका शिष्य बन जाऊंगा" एकबार राजसभा से रात्रि में लौटते समय उन्होंने उपाश्रय से आती एक सुमधुर ध्वनि में एक सांकेतिक गाथा सुनी। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की | केसव चक्की केसव दुचक्की केसीय चक्कीय | 74 श्लोक की स्वर लहरियाँ हरिभद्र के कानों से टकराई, उन्होंने बार-बार इसे ध्यानपूर्वक सुना । मन ही मन चिन्तन चला, पर वे बुद्धि को झकझोर देने पर भी अर्थ का नवनीत प्राप्त न कर सके। अर्थबोध प्राप्त करने की जिज्ञासा से वे उपाश्रय के द्वार तक पहुंचे और अभिमान से अति वक्र भाषा में महत्तराजी से पूछा - " इस स्थान पर चकचकाहट क्यों हो रही है? अर्थहीन श्लोक का पुनरार्वतन क्यों किया जा रहा है?" याकिनी महत्तरा ने धीर-गंभीर मृदु शब्दों में कहा- "नूतनं लिप्तं चिगचिगायते " 'नया लिपा हुआ आंगन चकचकाहट करता है, हम तो शास्त्रीय पाठ का उच्चारण कर रही है। याकिनी महत्तरा द्वारा दिए गए स्पष्ट और सारगर्भित उत्तर को सुनकर हरिभद्र प्रभावित हुए, उन्होंने साध्वीजी से अर्थबोध कराने की प्रार्थना की, साध्वीजी ने जिन भट्टसूरि के पास से अर्थ समझने का निर्देश दिया । हरिभद्र आचार्य जिनभट्टसूरि के पास श्लोक का अर्थ समझकर उन्हीं के पास दीक्षित हो गए। प्रबन्धकोश के अनुसार आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों की रचना की थी और उन सब पर अपने नाम के पूर्व उन्होंने “याकिनी महत्तरा सुनू" लिखा। उन्होंने महत्तरा साध्वी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा- "मैं शास्त्र विशारद होकर भी मूर्ख था, सुकृत के संयोग से निजकुल देवता की तरह धर्ममाता याकिनी के द्वारा मैं बोध को प्राप्त हुआ हूं।" अवदान : जैन इतिहास में याकिनी महत्तरा का नाम स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित है। जिनकी व्यवहार कुशलता हरिभद्र जैसे जैनधर्म के कट्टर विद्वेषी हिंदू को जैनधर्म के प्रभावक आचार्य के रूप में प्रतिष्ठापित करवाया। इनके इस महान अवदान की प्रतीक रूप मूर्ति चित्तोड़ के किले में हरिभद्रसूरि के मस्तक पर अंकित की गई है, उसका चित्र प्रथम अध्याय 'जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी - दर्शन' शीर्षक में देखें। Jain Education International कुवलयमाला कहा के आधार पर मुनि श्री जिनविजयी जी ने आचार्य हरिभद्र का समय ई. 700 से 770 के मध्य निश्चित किया है।" इसी आधार पर याकिनी महत्तरा साध्वी का समय भी ईसा की 7वीं सदी होना संभावित लगता है। 74. प्रभावक चरिते, हरिभद्रसूरि प्रबन्धः, गाथा 21 75. दशवै., हरि, वृत्ति 10/3 76. डॉ0 श्रीमती कोमल जैन, हरिभद्र साहित्य में समाज व संस्कृति, पृ. 3, वाराणसी 1994, 192 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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