SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ मुनिराज का भविष्यकथन सत्य हो गया। उसी रात्रि में अन्न से लदे जहाज सोपारकपुर बंदर पर पहुंचे। ईश्वरी की प्रसन्नता का पार नहीं था, उसको जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा पैदा हो गई। उसने पति से कहा-"कल यदि मुनि ने हमें आश्वस्त नहीं किया होता, तो आज हमारे परिवार का एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता, क्यों न हम अपने जीवन प्रदाता श्रमण श्रेष्ठ आचार्य के चरणों में दीक्षित होकर जीवन सफल करें।" ईश्वरी की प्रेरणा से सेठ जिनदत्त सहित चारों पुत्रों ने दीक्षा अंगीकार की। वी. नि. सं. 592 में इनकी दीक्षा हुई। तपागच्छ पट्टावली में वी. नि. 613 का उल्लेख है। कालक्रम से ईश्वरी के इन चारों पुत्रों के नाम से चार शाखाएं बनी। नागेन्द्र से-नागेन्द्रगच्छ (नाइली शाखा) चन्द्रमुनि से चन्द्रशाखा, विद्याधर से विद्याधरशाखा, निवृत्तिमुनि से निवृत्तिशाखा शुरू हुई। ये चारों कुछ कम दस पूर्व के ज्ञाता थे, और चारों ही प्रभावशाली आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित हुए। ऐसा भी उल्लेख है कि ईश्वरी के प्रत्येक पुत्र ने 21-21 आचार्य किए और उसमें से 84 गच्छ की उत्पत्ति हुई। इनमें निवृत्ति कुल का शीघ्र विच्छेद हो गया, शेष तीन दीर्घ समय चले। अवदान : साध्वी ईश्वरी का जीवन प्रत्येक साधक के लिए प्रेरणादायी है। उसने संकटकाल से शिक्षा ग्रहण की, उसके सामयिक चिन्तन ने भीषण संकट के अभिशाप को वरदान के रूप में बदल दिया। उसीकी प्रेरणा से पूरा परिवार प्रव्रजित होकर जैनधर्म का परम उपासक बना। नागेन्द्र आदि चार सुविशालगच्छ के अधिपति आचार्यों की प्रेरिका जननी आर्या ईश्वरी के प्रति जैनसंघ सदा ऋणि रहेगा। 3.3.2.19 आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की बहिन (वी. नि. 9वीं 10वीं शताब्दी) गुप्तकाल की यह अत्यन्त बुद्धिमती शास्त्रज्ञा जैन साध्वी हुई है। जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर के स्वर्गवास के पश्चात् उज्जैन के एक वैतालिक ने उसके समक्ष अनुष्टुप छन्द के दो चरण कहे'स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे' अर्थात् दक्षिण में इस समय अनेक 'वादी' रूपी तारे चमक रहे हैं।' उसके सांकेतिक भाव को पहचान कर उस साध्वी ने जान लिया कि निश्चय ही मेरे विद्वान् भ्राता का देहावसान हो गया है, उसने तुरन्त आगे के दो चरण कहकर उक्त छंद को पूर्ण किया-'नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः।।' अर्थात् निश्चय ही महान शास्त्रज्ञ श्री सिद्धसेन रूपी सूर्य अस्त हो गया है। इसके इस प्रत्युत्तर से उसके वैदुष्य एवं प्रत्युत्पन्नमति का पता चलता है। 3.3.1.20 साध्वी खंभिल्या (वी. नि. 1167) आप नागेन्द्र कुल के सिद्ध महत्तरा की शिष्या थीं, यह उल्लेख अकोटा (बसंतगढ़) से प्राप्त पार्श्वनाथ की तीन तीर्थी प्रतिमा से प्राप्त हुआ है। प्रतिमा के पीछे 'नागेन्द्र कुल में सिद्ध महत्तरा की शिष्या 'खंभिल्यार्जिका की यह प्रतिमा है,' ऐसा लेख अंकित है। प्रतिमा धातु की है। यह लेख वि. सं. 697 का है। 70. तपागच्छ पट्टावली भाग 1 पृ. 246 71. ऐतिहासक लेख संग्रह पृ. 106 72. डॉ. साध्वी सुभाषा, श्री कुसुमाभिनन्दनम्, पृ. 106 73. यतीन्द्रसूरि अभि. ग्रंथ, पृ. 209 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy