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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अनुदान : रुद्रसोमा की प्रेरणा एवं समयोचित वाणी का ही प्रभाव था कि उनका पुत्र आर्यरक्षित के रूप में संघ का प्रभावशाली युगप्रधान आचार्य बना उसने स्वयं दीक्षा लेकर अपने संपूर्ण परिवार को दीक्षा की प्रेरणा दी। उसका यशस्वी जीवन इतिहास की अनमोल संपदा है। “मानव जीवन की सफलता वंश-विस्तार में नहीं अपितु आत्मिक उत्थान में है," यह उसने अपने जीवन-व्यवहार से सिद्ध कर दिया।
3.3.1.15 रुक्मिणी (वी. नि. छठी शताब्दी का मध्यकाल)
वी. नि. की छठी शताब्दी के मध्यकाल में साध्वी रुक्मिणी का उल्लेख अत्युच्च कोटि की त्यागी के रूप में । जैन इतिहास में प्राप्त होता है। यह पाटलीपुत्र के धनकुबेर धनदेव की रूप-सौन्दर्य, गुण-सम्पन्न कन्या थी। साध्वियों के मुखारविंद से वज्रस्वामी की अलौकिक शक्ति व प्रभाव को श्रवण कर वह उन पर मुग्ध हो गई, उसने वज्र स्वामी से ही विवाह करने का अपना संकल्प पिता से कहा। पिता धनदेव एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों के साथ अपनी कन्या रुक्मिणी के विवाह प्रस्ताव को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुंचे, किन्तु उनके त्याग-वैराग्य से छलछलाते उपदेश को सुनकर रुक्मिणी का भोगी मन योग की ओर प्रवृत हो गया, उसने वज्रस्वामी से दीक्षा अंगीकार की और उनके साध्वी-संघ को गरिमामय बनाया। साध्वी रुक्मिणी का त्याग अपने आप में सबसे निराला एवं सबसे अनूठा है। इनका समय वी. नि. 548 से 584 के मध्य का है।
3.3.1.18 वैरोट्या (वि. नि. की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध)
वैरोट्या वरदत्त सार्थवाह की पुत्री व पद्मिनीखंड के पद्मकुमार की पत्नी थी। सास की प्रताड़नाओं से त्रस्त उसके अशांत मानस को आचार्य नंदिल ने शांति प्रदान की थी, संसार से विरक्त होकर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। आचार्य नन्दिल के उपकारों का स्मरण कर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरणों की भक्ति में वह तन्मय बन गई। आयुष्य पूर्ण कर धरणेन्द्र की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। कहा जाता है आचार्य नन्दिल ने वैरोट्या की स्मृति में 'नमिऊण जिण पासं' इस मंत्र गर्भित स्तोत्र की रचना की। वैरोट्या का समय वी. नि. 597 के बाद का है।
अवदान : वैरोट्या संयम-साधना की दीपशिखा उन साध्वियों में है जिसने अपने आत्मिक गुणों को इतना विकसित किया कि एक महान आचार्य के द्वारा वे स्तुत्य हुईं। इतिहास के ये उदाहरण जैन श्रमणी-संघ की गौरव गरिमा में अभिवृद्धि करने वाले हुए। 3.3.1.18 ईश्वरी (वी. नि. छठी शताब्दी का अंतिम दशक)
ईश्वरीदेवी सोपारक (सोपारा-मुंबई के पास) निवासी सल्हड़ गोत्रीय श्रेष्ठी जिनदत्त की पत्नी थी। उसके चार पुत्र थे- नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। दुष्काल के प्रकोप से प्रताड़ित ईश्वरी जब एक लाख स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य से थोड़ा सा अन्न खरीद कर उसमें विष मिलाकर खाने की तैयारी कर रही थी तभी युगप्रधानाचार्य आर्य वज्रसेन का वहां आगमन हुआ, उन्होंने गुरु के भविष्य कथन के अनुसार ईश्वरी से कहा -" श्राद्धे! अब दुष्काल का अंत सन्निकट है, कल ही प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध हो जायेगा।"
68. (क) आव. नि. हरि. वृ., भाग 1 पृ. 196, (ख) प्रभावक चरित, वज्रप्रबन्धः 69. प्रभावक चरिते, श्री आर्य नन्दिल प्रबन्धः, पृ. 31-36
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