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________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ उस तपोपूता श्रमणी के अद्भुत बुद्धि कौशल, अप्रतीम धैर्य एवं साहस से प्रभावित होकर मुरुण्डराज ने अपनी बहन से कहा-"एस धम्मो सवन्नु दिट्ठो"। अर्थात् यही धर्म श्रेष्ठ और सर्वज्ञदृष्ट है। तुम्हें प्रव्रजित होना है तो जैनधर्म में प्रव्रजित हो जाओ।62 अवदान : यद्यपि इस साहसी साध्वी का तथा मुरुण्ड राजकुमारी के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। किंतु इस अगाध धैर्यशालिनी सर्वसहा साध्वी ने जन-जन को जो विवेक व सहिष्णुता का बोध पाठ दिया, वह जैन इतिहास में सदैव आदर्श रूप रहेगा। 3.3.1.13 सुनन्दा (वी. नि. छठी शताब्दी का प्रारंभ) सुनन्दा उज्जयिनी के धनपाल श्रेष्ठी की कन्या थी। स्वयं गर्भवती होती हुई भी अपने पति धनगिरि को आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा की अनुमति दी। कालान्तर में पुत्र वज्र को भी पूर्वजन्म के संस्कारवश श्रमणधर्म पर अनुराग उत्पन्न हुआ, तब उसे दीक्षा की आज्ञा देकर सुनन्दा भी निवृत्ति मार्ग में प्रवृत्त हुई। बालक वज्र उस समय तीन वर्ष के थे। आर्य वज्र का लालन-पालन किन्हीं बहुश्रुती, ज्ञान-स्थविरा साध्वियों की देखरेख में हुआ, उन साध्वियों की निरन्तर स्वाध्याय-प्रवृत्ति का ही प्रभाव था कि बालक वज्र सुन-सुनकर आठ वर्ष की अल्पायु में एकादशांगी के ज्ञाता हो गए थे। आगे चलकर ये दस पूर्वधारी महाप्रभावक आचार्य बने।4 सुनन्दा ने किसके पास दीक्षा ग्रहण की ओर आर्य वज्र ने किन साध्वियों के मुखारविंद से एकादशांगी याद की, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। आर्या सुनन्दा की दीक्षा आर्य वज्र के जन्म के तीन-चार वर्ष पश्चात् अर्थात् वीर नि. 500 में होनी सिद्ध है। अवदान : धनगिरि जैसे भवविरक्त महान त्यागी की पत्नी और आर्य वज्र जैसे महान युगप्रधानाचार्य की माता सुनन्दा का गौरव-गरिमापूर्ण उल्लेख सदा स्वर्णाक्षरों में किया जाता रहेगा, जिसने गुर्विणी होते हुए भी दीक्षा के लिये उत्कंठित अपने पति को प्रव्रजित होने की अनुमति दी। भारतीय नारी का यह त्यागमय आदर्श उदाहरण अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। 3.3.1.15 रुद्रसोमा (वी. नि. की छठी सदी) रुद्रसोमा दशपुर के राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी एवं नव पूर्वधारी जैनाचार्य आर्यरक्षित की मातेश्वरी थी। जब आर्यरक्षित पाटलीपुत्र से उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजा द्वारा सम्मानित हुए, तब रुद्रसोमा ने उस विद्या को संसार वृद्धि का हेतुभूत कहकर दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये उन्हें आर्य तोसलीपुत्र के पास भेजा। उनके पास दीक्षा लेकर आर्यरक्षित ने आचार्य वज्रस्वामी से नौ पूर्वां तक का विशद ज्ञान अर्जित किया। कालान्तर में रुद्रसोमा की प्रेरणा से उसके द्वितीय पुत्र फल्गूरक्षित एवं सोमदेव पुरोहित ने भी जिनदीक्षा अंगीकार की। स्वयं रुद्रसोमा अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं एवं दोहित्रियों आदि परिवार के साथ दीक्षित हुई थी।67 62. बृहत्कल्प भाष्य, भा. 4 गाथा 4123-26 63. (क) आव. हरि. वृ., भाग 1 पृ. 194 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 812 64. प्रभावक चरिते, वज्रप्रबन्धः पृ. 1-13 65. आव. चू., भाग 1 पृ. 402 66. जेण संसारो वड्ढइज्जइ, तेण कहं तुस्सामि? -उत्तरा. नेमि. चंद्र वृत्ति पृ. 15 67. अज्जरक्खिएहिं आगंतूण सव्वो पव्वाविओ, माता पिता भाता भगिणी.....धूताओ सुहाओ पव्वावियाओ। - आव. चू. भा. 1 पृ. 406 189 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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