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जैन श्रमणियों का बहद इतिहास
स्थविरा आगम-मर्मज्ञा तथा प्रकाण्ड विदुषी थी, साथ ही संघ संचालन में कुशल एवं आचारनिष्ठ भी थी। उन्होंने श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु आयोजित वाचनाओं, विचारणाओं एवं परिषद में अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ उपस्थित रहकर इस कार्य में पूर्ण सहयोग प्रदान किया था।
हिमवंत स्थविरावली के अनुसार खारवेल का अंतिम समय वी. नि. 330 सिद्ध होता है, महार्या पोइणी खारवेल द्वारा आयोजित आगम-परिषद् में उपस्थित थी, इस उल्लेख से आर्या पोइणी का समय 300 से 330 तक अनुमानित होता है।
3.3.1.12 सरस्वती (वी. नि. की 5वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध)
साध्वी सरस्वती धारावास नगर के राजा वज्रसिंह/वीरसिंह और रानी सुरसुन्दरी का कन्या थी। उसने अपने भ्राता कालककुमार के साथ आचार्य गुणाकरसूरि (विद्याधर शाखा) के वैराग्यरंजित उपदेश को श्रवण करके ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रव्रज्या अंगीकार की। आगे जाकर ये 'सूरि' पद पर प्रतिष्ठित हो गए। एकबार आचार्य कालक के साथ आर्या सरस्वती भी अन्य साध्वियों के साथ विहार करती हुई उज्जैन पहुंची। वहाँ का राजा गर्दभिल्ल अन्यायी तो था
ही व्यभिचारी भी था। उसने साध्वी सरस्वती पर मोहित होकर उसका बलात् अपहरण करवा लिया। राजा ने उसे भय और प्रलोभन दिये, किंतु सरस्वती अपने धर्म से च्युत नहीं हुई।
कालकाचार्य को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा को बहुत समझाया, संघ अग्रेश्वरों ने भेंट देकर साध्वी को छोड़ने की प्रार्थना की, तथापि वह नहीं माना तो आचार्य ने निराश हो उसे पदभ्रष्ट करने का संकल्प किया। उन्होंने अपनी प्रतिभा, विद्या तथा युक्ति आदि से सिन्धु देश के 96 शक राजाओं के साथ मिलकर गर्दभिल्ल पर धावा बोल दिया। गर्दभिल्ल को परास्त कर साध्वी सरस्वती को उसकी कैद से मुक्त कराया और प्रायश्चित आदि देकर उसे पुनः साध्वी-संघ में सम्मिलित किया तथा स्वयं भी आलोचना की।"
__ अवदान : साध्वी सरस्वती अत्यंत धैर्यवान एवं साहसी साध्वी थी। गर्दभिल्ल ने उसे अनेक प्रकार की यातनाएँ, भय एवं प्रलोभन दिये, तथापि वह सत्पथ से विचलित नहीं हुई। गर्दभिल्ल के पाश से मुक्त होने के पश्चात् सरस्वती ने जीवन-पर्यन्त कठोर तप एवं संयम की साधना की एवं जिनशासन में स्थित साध्वियों के लिये आदर्श रूप बनीं। 3.3.1.13 मुरुण्ड ‘राजकुमारी' (वि. नि. 5वीं 6ठी सदी)
विदेशी शक शासक राजा मुरुण्ड की भगिनी विधवा होने के पश्चात् निवृत्तिमार्ग अपनाना चाहती थी, कहा जाता है कि मुरुण्डराज ने अपनी बहन को योग्य स्थान पर दीक्षा देने हेतु साध्वियों की परीक्षा करनी चाही इसके लिए उसने महावत सहित एक भीमकाय हाथी को चौराहे पर खड़ा कर दिया, जब कोई साध्वी उधर से निकलती तो महावत चेतावनी देता, कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाओ अन्यथा यह हाथी तुम्हें अपने पैरों से कुचल देगा। अनेक साध्वियाँ, परिव्राजिकाएँ, भिक्षुणियाँ भयाक्रान्त बनी निर्वसना हो गईं। अंत में एक जैनश्रमणी उधर आई, ज्योंहि हाथी उसकी ओर बढ़ा, तो उसने सर्वप्रथम मुँहपत्ती, फिर रजोहरण फिर पात्र आदि धर्मोपकरण उसकी ओर फैंके, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी, किन्तु उसने अपने वस्त्रों का त्याग नहीं किया। 60. 'सुता सरस्वती नाम्ना ब्रह्मभूविश्वपावना।' -प्रभावकचरिते, श्री कालकसूरिप्रबन्ध; (चन्द्रप्रभसूरि प्रणीत) गाथा 8 61. वही, कालकसूरिप्रबन्ध, पृ. 36-46
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