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महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ
अवदान : आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती जैसे आचारनिष्ठ प्रभावशाली एवं महाप्रभावक - श्रमण श्रेष्ठों को एकादशांगी का अध्ययन कराने वाली महासती यक्षा कितनी विदुषी, और आचारनिष्ठ होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यक्षा आदि इन बालब्रह्मचारिणी, महामेधाविनी एवं विशिष्ट श्रुतसम्पन्ना साध्वियों से साध्वी- मंडल ही नहीं, समूचा जैनसंघ गौरवान्वित हुआ है, भारत की अध्यात्म चेतना इन साध्वियों की चिरऋणि रहेगी।
3.3.1.10 भद्रा (वी. नि. सं. 245 के लगभग )
श्रेष्ठी 'भद्रा' अवन्तिसुकुमाल की माता थी । इनका समय वी. नि. सं. 245 का है, जब मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के शासनकाल का बारहवां वर्ष चल रहा था, उस समय आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् आर्य सुहस्ती आचार्य बने । श्रेष्ठी भद्रा आर्य सुहस्ती के काल में हुई थी।
यह उज्जैन की अति समृद्ध महिला थी, उसका सप्त मंजिल का भव्य भवन था, साधु साध्वियों के प्रति उसके हृदय में अपार श्रद्धा थी, वह शय्यातर - दाता भी थी, साधु-साध्वी उसकी वाहनकुटी में ठहरा करते थे। उसने अपने एकमात्र पुत्र अवन्ति - सुकुमाल का बत्तीस श्रेष्ठी कन्याओं के साथ विवाह करवाया था।
आचार्य सुहस्ती अपने शिष्य परिवार के साथ एकबार उज्जैन में पधारे और श्रेष्ठी भद्रा की वाहनकुटी में ठहरे। रात्रि के समय आचार्यश्री द्वारा सुमधुर आगम पाठ का श्रवण कर अवन्तीसुकुमाल को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्वभव में नलिनीगुल्म विमान के भोगे हुए भोगों को पुनः भोगने की अभिलाषा लेकर वे माता भद्रा एवं पत्नियों की अनुमति के बिना ही दीक्षित हो गये और आर्य सुहस्ती की आज्ञा से नगर के बाहर निर्जन शमशानभूमि में ध्यान लगाकर खड़े हो गए। । उनके पदचिन्हों पर लहूमिश्रित धूलिकणों की गंध का अनुसरण करती हुई एक श्रृगालिनी अपने बच्चों सहित वहाँ आई और शांत खड़े मुनि के पैर को और धीरे-धीरे उनके अंग-प्रत्यंगों को दांतों से काट-काट कर खाने लगी, समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग कर मुनि अंवतिसुकुमाल नलिनीगुल्म विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए।
दूसरे दिन माता भद्रा ने आर्य सुहस्ती से यह सारा वृत्तान्त जाना । तो पुत्र मोह से उद्वेलित हो अश्रुपात करने लगी। बाद में आर्य सुहस्ती के उपदेश से उसने भी अपनी 31 पुत्रवधुओं के साथ श्रमणी दीक्षा ग्रहण कर ली। एक पुत्रवधु गर्भवती थी, अतः वह घर पर ही रही । *
अवदान : भारतीय श्रमण संस्कृति की यह विशेषता रही कि यहाँ नारियाँ पतिवियोग के पश्चात् न आत्मदाह करती हैं न जीवन भर अश्रुमुखी बनी रहती हैं, वरन् धर्म-मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन का साफल्य प्राप्त करती हैं। भद्रा एवं उसकी 31 पुत्रवधुएं इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
3.3.1.11 आर्या पोइणी (वी. नि. 300 से 330 के आसपास)
वीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी में कलिंग नरेश राजा खारवेल ने आगम-साहित्य को सुरक्षित व सुव्यवस्थित करने के लिए कुमारीपर्वत पर जैन मुनियों का महासम्मेलन करवाया था, उसमें आर्य सुस्थित की परम्परा के 500 श्रमण और आर्या पोइणी के नेतृत्व में 300 जैन साध्वियाँ सम्मिलित हुई थीं। ” आर्या पोइणी महत्तरा साध्वी थीं, वह ज्ञान 58. (क) आव. नि. हारि. वृ., भा. 2 पृ. 120; (ख) आव. चू., भाग 2 पृ. 157; (ग) प्राप्रोने 2 पृ. 520; 59. (क) तपागच्छ पट्टावली, पृ. 246; (ख) जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 2, पृ. 780
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