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महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ 3.3.1.22 साध्वी गुणा (वी0 नि. 1432)
आप गुजरात राज्य की एक विदुषी ख्यातनामा साध्वी थी। वि. सं. 962 में कविकुंजर सिद्धर्षि ने भिन्नमाल के जिन-मंडप में 16 हजार श्लोक प्रमाण सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक रूपक ग्रंथ 'उपमिति भव प्रपंच कथा' रची। आपने उसका संस्कत भाषा में लोकभोग्य शैली में अनवाद किया था। सरिजी के उत्कष्ट व अदभत ग्रन्थ की व्याख्या संस्कत में लिखने वाली 'साध्वी गणा' निश्चय ही एक प्रकाण्ड पंडिता साध्वी रही होगी। कथा के प्रथम आदर्श के रूप में साध्वी जी का 'श्रुतदेवी' (सरस्वती) के रूप में स्मरण किया है।
प्रथमादर्शलिखिता साध्वी श्रुतदेवतानुकारिण्या।
दुर्गस्वामी गुरूणां, शिष्यका गुणामिधया। उपाध्याय क्षमाकल्याण जी द्वारा 'प्रश्नोत्तर सार्द्ध शतक' की भाषा साध्वी जी के लिये ही बनाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
3.3.2 गण कुल या शाखा से अनुबद्ध श्रमणियाँ (वी. नि. 527-927)
वीर निर्वाण छठी शताब्दी से 10वीं शताब्दी तक के मथुरा के शिलालेखों में इन श्रमणियों के उल्लेख मिलते हैं, ये प्रायः किसी गण, शाखा या कुल से संबंधित है। प्राप्त अवशेषों में कुषाणकालीन-ईसा की प्रथम शती से तृतीय शती तक के अवशेष अधिक संख्या में है, जो वर्तमान मथुरा नगर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कंकाली टीले' से प्राप्त हुए हैं। इस टीले की तीन बार खुदाई में अब तक लगभग 100 शिलालेख, डेढ़ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियाँ, आयागपट्ट, स्तूप स्तम्भ आदि का विशाल जैन खजाना देखकर लोगों ने इसे 'जैनी टीला' नाम दिया है। दो सहस्र वर्ष प्राचीन मथुरा में स्थित ये प्रतिमाएँ नग्न, अर्द्धनग्न तथा अनग्न अवस्था में खड़ी तथा पद्मासन में बैठी हुई हैं। इन प्रतिमाओं के शिलालेखों पर तत्कालीन ब्राह्मी लिपि एवं संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। कुषाण संवत् 5 से 98 (ई. 83 से 176) तक के लेखों में उन तीन गणों 12 कुलों एवं 10 शाखाओं के नाम उकित है, जो श्वेताम्बर परम्परा के आगम कल्पसूत्र में भी आये हैं तथा नन्दीसूत्र के अन्तर्गत वाचकवंश की पट्टावली में जिन आचार्यों -आर्य समुद्र, आर्य मंगु, आर्य नन्दिल, आर्य नागहस्ती आर्य भूतदिन्न के नाम हैं, वे भी उन शिलालेखों पर अंकित हैं।
श्वेताम्बर-परम्परा से संबद्ध ग्रंथों की पट्टावलियों में उल्लिखित आचार्यों के पूर्वोक्त नामों से एवं गण या कुल से यह तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि मथुरा की कलाकृतियां एवं उनके प्रेरणास्रोत आचार्य व श्रमणियाँ दिगम्बर-परम्परा की नहीं है। किंतु साथ ही नग्न-अनग्न मूर्तियाँ इस बात की भी द्योतक हैं, कि इनकी निर्माणकर्ती व प्रेरिका श्रमणियाँ एकान्त श्वेताम्बर परम्परा की आग्रही नहीं रही होंगी, यदि ऐसा होता तो सभी मूर्तियाँ जो प्रायः समकालीन एवं एक ही तीर्थक्षेत्र की निधि है, वे एक ही अनग्न अवस्था में प्राप्त होती, नग्न या अर्द्धनग्न नहीं। ऐसी मूर्तियों के चित्र डॉ. सागरमल जी जैन ने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में दिये हैं। उन्होंने यह भी सिद्ध किया है
77. ऐति. लेख संग्रह, पृ. 338 78. ब्र. चंदाबाई अभि. ग्रं., पृ. 572 79. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-3 प्रस्तावना, पृ. 16-18
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