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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कि मथुरा के मंदिरों की निर्माणकर्की महिलाएँ एवं श्रमणियाँ श्वेताम्बर एवं यापनीय की पूर्वज हैं, जिन्होंने पारस्परिक सौहार्द की भावना से यह समन्वयमूलक निर्माण कार्य किया है। अधिकांश अभिलेखों में 'सर्वसत्त्वानां हितसुखाय' की पवित्र भावना ही दृष्टिगत होती हैं।80
इन मूर्तियों को बनवाने और प्रतिष्ठापित कराने वाली अधिकांश स्त्रियाँ हैं, जो आर्याओं के उपदेशों से प्रभावित होकर निर्माण कार्य में प्रवृत्त हुई थीं, अतः शिलालेखों पर दानदात्री गृहस्थ श्राविकाओं के नाम एवं उनके परिवारीजनों के नामों के साथ-साथ उन-उन आर्याओं के नाम भी उनकी गुरू-परम्परा के साथ उपलब्ध होते हैं, साथ ही संबंधित गण, कुल तथा शाखा आदि के नाम भी इन अभिलेखों में मिलते हैं।
3.3.2.1 आर्यवती (विक्रम की प्रथम शताब्दी)
आर्यवती का चोकोर शिलापट्ट हारित पुत्र पाल की पत्नी कोत्स गोत्रीय श्रमणों की भक्त श्राविका अमोहिनी ने राजा शोडास (सुदास) के राज्यकाल (ई.पू. प्रथम शताब्दी) में प्रतिष्ठापित कराया। शिलापट्ट पर बीच में अभया मुद्रा में खड़ी हुई देवी 'आर्यवती' प्रदर्शित है, उनके आजु बाजु में छत्र, चौरी तथा माला लिये हुए परिचारिका स्त्रियाँ खड़ी हैं। यह आर्यवती कौन थी, यह निर्णीत होना तो अभी भी शेष है, हो सकता है कि यह कोई श्रमणी या आर्यिका हो जो बाद में देवतुल्य पूज्य मानी गई हो, क्योंकि इनकी उपासना में एक क्षुल्लक/मुनि भी प्रदर्शित है। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कि ये तीर्थंकर माता है।2.
3.3.2.2 क्षुल्लिका पूतिगंधा (वि. सं. 57)
वि. सं. 57 के लगभग सोपारा से एक आर्यिका संघ का यात्रार्थ निकलने का उल्लेख जयंतिलाल एल. पारख ने बिहार, बंगाल, उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थ में किया है। यह संघ राजगृही के विपुलाचल पर गया था, उसमें धीवरी पूतिगंधा नाम की क्षुल्लिका भी थी। यहाँ की नीलगुफा में उसकी समाधि हुई थी। 3.3.2.3 आर्या साथिसिहा "षष्ठिसिंहा" (वि. सं. 139)
मथुरा के ही हुविष्क वर्ष 4 के प्राकृत भाषा में लिखित एक शिलालेख पर साथिसिहा (षष्ठिसिंहा) की शिष्या सिहमित्र की श्राद्धचरी के दान का उल्लेख है। षष्ठिसिंहा वारणगण, आर्य हाट्टकिय कुल एवं वज्रनागरी शाखा के पुष्यमित्र की शिष्या थी।85 3.3.2.4 आर्या दतिला (वि. सं. 147)
अहिछत्रा तीर्थ के प्राचीन जीर्ण जैन मंदिर के उत्खनन से एक खंडित मूर्ति पद्मासन के रूप में प्राप्त हुई। उस । 80. जैनधर्म का यापनीय-संप्रदाय, पृ. 65 81. कल्पसूत्र (स्थविरावली), पृ. 231, श्री अमरमुनि -पद्म प्रकाशन, दिल्ली, ई. 1995 82. ब्र. पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 494 83. भारत के दिगंबर जैन तीर्थ, पृ. 86 84, वारणगण और वज्रनागरी (वइरी) शाखा-श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज है। इसका उल्लेख भी कल्पसूत्र में है।
___ -सचित्र कल्पसूत्र, अमरमुनि, पृ. 220, 222 85. जैन शिलालेख संग्रह, भा.2, शिलालेख सं 17-मथुरा
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