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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एक मान्यता यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण प्रवेश से पूर्व ही वहां की जनता जैनधर्म से परिचित थी. अन्यथा 12 हजार श्रमणों के आहारादि देने-लेने की व्यवस्था श्रमणों से अनजान प्रदेश में कैसे संभव हो सकती थी? बौद्धों के पालि-साहित्य से भी इस कथन की पुष्टि होती है। महावंश (बौद्ध ग्रंथ) में उल्लेख है कि 437 ई. पू. के लगभग सिंहलनरेश पाण्डुकभय ने अपनी राजधानी अनुराधापुर में एक जैन मंदिर और जैनमठ बनवाया था, निर्ग्रन्थ साधु वहां पर निर्बाध धर्म-प्रचार करते थे। कुल 21 राजाओं के राज्य तक वह विहार और मठ वहां मौजुद रहा, किन्तु ईसा पूर्व 38 में राजा वट्टगामिनी ने उसको नष्ट कर बौद्ध विहार बनवा दिया था। इससे ज्ञात होता है कि दक्षिण में लंका तक आचार्य भद्रबाहु से पूर्व भी जैनधर्मानुयायी श्रावक रहते थे, और उन्हीं अनुयायियों ने इस विशाल श्रमण संघ का खूब श्रद्धा-भक्ति सहित स्वागत किया होगा। श्रमणों के विचरण से कर्नाटक एवं तमिल प्रदेशों मे जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ और दक्षिण भारत जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया।
__ श्रमण समुदाय के साथ साध्वियों के विहार का यद्यपि कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता, तथापि इतने विशाल संघ में साध्वियाँ नहीं गई हों, यह भी संभव नहीं लगता। दुष्काल की विषम स्थिति से सुरक्षित बचने तथा संयम का निर्दोष पालन करने की भावना से साध्वियों ने आचार्य के साथ-साथ विहार किया ही होगा। इस तथ्य की सिद्धि ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचित 'शिलप्पदिकारम' और 'मणिमेखलै' नामक तमिल महाकाव्य से होती है। बौद्ध विद्वान् द्वारा रचित तमिलग्रन्थ' 'मणिमेखलै' में जैन संप्रदाय और जैन मुनियों (समण-अमण) तथा उनके विहारों का विशेष रूप से उल्लेख है। यह ग्रन्थ ईसा की दूसरी से पाँचवी शताब्दी के मध्य का है, उसमें वर्णन है कि "निर्ग्रन्थ गण ग्रामों के बाहर शीतल मठों में रहते थे। इन मठों की दिवाले बहुत ऊँची और लाल रंग से चित्रित होती थी.. .............जैन साधुओं के आवास-स्थानों के साथ जैन साध्वियों के आराम भी होते थे। जैन साध्वियों का तमिल महिला समाज पर विशेष प्रभाव था।"14
शिलप्पदिकारम् की एक प्रमुख पात्र ‘कोन्ती' जैन साध्वी थी, वह कावेरी नदी के तट पर श्रीकोइल के जैन मंदिर की एक वसतिका में रहती थी, तमिल की निर्दोष नगरी 'मदुरा' को देखने की उत्कंठा से तथा पापमुक्त संतो का उपदेश सुनने की इच्छा से वह श्रेष्ठी कोवलन् और उसकी पत्नी कण्णकी के साथ ही आई थी, उसने मार्ग मे चलते हुए कण्णकि को जैनधर्म के सिद्धान्तों का विशद ज्ञान कराया था, कवुन्ति ने उसे अहिंसक मार्ग पर चलने की शिक्षा भी दी थी।
उक्त उल्लेखों के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि दक्षिण में जैन श्रमणियों की उपस्थिति ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में निर्द्वन्द्व रूप से थी उसके पश्चात् भी 11वीं शती तक गंगवंश के 900 वर्षों के राज्य काल में जैनधर्म कर्नाटक में खूब फूला फला, क्योंकि उस समय कर्नाटक में सैंकड़ों श्रमणियाँ विचरण करती थी।
वि. संवत् 757 के आसपास श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर जिन आर्यिकाओं के संलेखना व्रत ग्रहण करने के उल्लेख हैं, उनमे से बहुत सी श्रमणियाँ प्रसिद्ध राजवंशों से ही संबंधित थी। श्रमणी पल्लविया (974-984) गंगनरेश राचमल्ल के मंत्री चामुण्डराय की भगिनी थी, पनिवव्वे भी राजा चामुण्ड के वंश की राजकुमारी थी, गंगनरेश 13. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ. 2 14. दृष्टव्य- दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 107 15. भगवान महावीर और उनका तत्वदर्शन, अध्याय 4 पृ. 427 16. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ. 15
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