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दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
बुत्तुंग की ज्येष्ठ भगिनी पामब्बे (1028) पेदियर दोरप्पय नरेश की पत्नी थी। इसी प्रकार माचिकब्बे, शान्तलदेवी आदि पोयसल वंश के नरेश की सहधर्मिणी थी। इनके अतिरिक्त भी चालुक्यवंश राष्ट्रकूटवंश आदि राजाओं के जैनधर्मावलम्बी होने से यह सिद्ध होता है कि वहां की राजमहिषियाँ भी जैनधर्म के प्रति गहन आस्था रखती होंगी और दीक्षा भी लेती होगी। 4.4 यापनीय सम्प्रदाय की श्रमणियाँ
जैनधर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बर के अतिरिक्त जैनों का एक संप्रदाय और भी था जो यापनीय के नाम से जाना जाता था। इस सम्प्रदाय की विशेषता यह थी कि इसने श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के मध्य एक योजक कड़ी का काम किया। एक ओर यापनीय संघ के मुनि नग्न रहते थे, मोरपिच्छी रखते थे, पाणितल भोजी थे, नग्न मूर्तियों की पूजा करते थे, दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा मान्य आचारांग आदि आगमों को अपने धर्मग्रन्थों के रूप में मानते थे, रत्नत्रय की पूजा करते थे, कल्पसूत्र की वाचना करते थे, स्त्री को उसी भव में मुक्ति, सवस्त्रधारी की मुक्ति व केवली का कवलाहार मानते थे। विक्रम की दूसरी शताब्दी से 11वीं शताब्दी पर्यन्त लगभग एक सहस्र वर्ष की लम्बी अवधि तक यह एक अति प्रतिष्ठित तथा राज्यमान्य जैन सम्प्रदाय के रूप में सम्मानित रहा और अंत में यह दिगम्बर संघ में विलीन हो गया।
श्रमणियों के लिये जितनी उदारता इस संघ ने दिखाई उतनी न श्वेताम्बरों ने दिखाई न दिगम्बरों ने। दोनों संघों में प्रारम्भ काल से लेकर वर्तमान काल तक साध्वियों के समूह को साधु आचार्यों के ही अधीन रखा जाता रहा है। साध्वियों द्वारा संघ-संचालन करने, उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने अथवा भट्टारिका पद प्रदान करने की परम्परा किसी भी काल में नहीं रही। इन दोनों संधों के समग्र आगम या आगमेतर साहित्य में ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं होता जहाँ किसी साध्वी को ऐसे सर्वाधिकार सम्पन्न एवं स्वतंत्र अधिकारिक पदों पर आसीन किया हो। किंतु इन दोनों की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक मान्यताओं के विपरीत यापनीय संघ ने श्रमणियों को भी 'भट्टारक' पद पर प्रतिष्ठित किया।
सुन्दर पांड्य से पूर्व मदुरा के पांड्य शासनकाल और उसके पूर्व तथा उत्तरवर्ती काल के शिलालेखों में साध्वियों के स्वतन्त्र संघ, भट्टारक साध्वियों, पट्टिनी कुरत्तियार (पट्टधर अथवा आचार्य गुरूणी), तिरूमले कुरत्ती (गुरूणी) आदि के उल्लेख देखकर यह मानना पडता है कि इस संघ में साध्वियाँ स्वतन्त्र रूप से संघ संचालन करती थी उनकी अपनी संस्थाएँ थीं। वे नर और नारी दोनों को अपना शिष्य बनाती थीं। कर्णाटक का इतिहास साक्षी है कि यापनीय संघ ने स्त्रियों को सर्वाधिक प्रोत्साहन दिया। परिणामस्वरूप मध्ययुग में जैनधर्म कर्णाटक प्रदेश का बहुजनसम्मत प्रधान धर्म बना।
4.5 भट्टारक परम्परा की श्रमणियाँ : पद एवं अधिकार
दिगम्बर श्वेताम्बर और यापनीय तीनों संघों में उनके स्वतन्त्र अस्तित्व की दो-तीन शताब्दियों के मध्य ही भट्टारक परम्परा भी प्रारम्भ हुई। इन तीनों परम्पराओं के कुछ श्रमण, गिरि-गुहाओं का निवास तथा सतत परिव्रजन 17. जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 3, पृ. 247 18. डॉ. सागरमल जैन, जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय, पृ. 82, 108, 120, 135, 170, 180
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