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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास को छोड़कर रहने लगे। अपने-अपने स्थानों पर सिद्धान्तशालाएँ खोलकर बालकों तथा युवकों को सैद्धान्तिक, धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षण देने लगे। अपने द्वारा स्थापित मंदिर, चैत्य, महाविद्यालय आदि के नाम पर जो विशाल धनराशि प्राप्त होती, उससे इन्होनें सिंहासनापीठ कायम किये, उच्चकोटि के संस्कृति केन्द्र तथा विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षा केन्द्र बनाये तथा वहां से निकले प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् श्रमणों को दूरवर्ती प्रदेशों में धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिये भेजा। इनमें श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा 'श्रीपूज्य परम्परा' के नाम से जानी जाती थी, जो कालान्तर में यति-परम्परा के रूप में परिवर्तित हो गई। वर्तमान में प्रचलित भट्टारक परम्परा केवल दिगम्बर-आम्नाय की ही है, जो आचार्य माघनन्दि द्वारा कोल्हापुर (क्षुल्लकपुर) नरेश गण्डादित्य और उनके सामन्त सेनापति निम्बदेव की सहायता से ई. सन् 1123 से 1135 के मध्य किसी समय प्रारम्भ हुई थी। आचार्य माघनन्दि के 700 शिष्य उच्चकोटि के विद्वान् थे, जिनसे विभिन्न भागों में 25 भट्टारक पीठ स्थापित हुए। ये ही नन्दि संघ के मूल पुरुष आचार्य थे। इस परम्परा में भट्टारक पद्मनंदी के तीन शिष्यों से तीन भट्टारक परम्पराएँ और उनसे अनेक शाखाएँ प्रशाखाएँ प्रचलित हुई। भट्टारक परम्परा ने यापनीय संघ के समान ही साध्वियों को साधुओं के समान पूर्ण अधिकार दिये, अनेक श्रमणियाँ भट्टारिका पद पर प्रतिष्ठित हुईं इसका प्रबल प्रमाण 'तिरूचारणत्थुमलै' स्थान है, यहाँ पर प्राचीन काल में जैन संघ का एक विश्वविद्यालय था, उस पर प्रकाश डालने वाले 'कलुगुमलै' के शिलालेखों में एक साध्वी भट्टारिका का उल्लेख है, उसने उस विश्वविद्यालय मे जैन सिद्धान्तों का उच्चकोटि का प्रशिक्षण दिलवाकर विद्वान, स्नातकों को देश के विभिन्न प्रान्तों में धर्म प्रचार के लिये भेजा था। इन शिलालेखों में कतिपय 'कुरत्तिगल' (आदरणीया गुरूणी) के नाम भी अंकित है। उन सब अभिलेखों का सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि से अध्ययन करने पर साध्वी संघ के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण अनेक ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आ सकते हैं। 4.6 दक्षिण के कर्नाटक प्रान्त में दिगंबर परंपरा की आर्यिकाएँ (वि. संवत् आठवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक) ___ कर्नाटक प्रान्त में जैन श्रमणियों का सर्वप्रथम उल्लेख चन्द्रगिरि के अभिलेखों से प्राप्त होता है। इस प्रान्त की प्राप्त श्रमणियों का विवरण इस प्रकार है 4.6.1 राज्ञीमती गन्ति (वि. सं. 757) ___ आप नविलूर संघ, आजिगण की साध्वी थीं। चन्द्रगिरि पर्वत पर संन्यास धारण कर संलेखना द्वारा स्वर्ग गति प्राप्त की थी। लेख लगभग शक संवत् 622 का है। संलेखना जैन दर्शन की एक अनुपम देन है, जो आत्मघात से बिल्कुल विपरीत है, आत्मघात नैराश्यपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति का नाम है, जबकि संलेखना समतामूलक संयम की , अंतिम परिणति है, जो आध्यात्मिक जीवन का परिशोधन करने के लिये धारण की जाती है। 19. वही, भाग 3 पृ. 175 20. वही, भाग 3 पृ. 173-74 21. वही, पृ. 142 22. प्रो. वी. पी. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय पृ. 91 23. श्री हीरालाल जैन, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1 लेख संख्या 207 (97) 206 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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