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________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.2 दिगम्बर परम्परा का आदिकाल श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी. नि. 609 (वि. संवत् 139) में दिगम्बर मत की स्थापना हुई। आर्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति (गृहस्थ नाम सहस्रमल) ने एकान्त नग्नत्व को लेकर जिस नवीन पंथ की स्थापना की उस बोटिक मत'' में साध्वी उत्तरा का उल्लेख आता है। दिगम्बर परम्परा में साध्वी से संबंधित इस प्रकार का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, साध्वियाँ वहाँ प्रारंभ से ही सचेल ही स्वीकार की गई हैं। साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कालक्रम से दिगम्बर परम्परा में अनेक संघ, अन्वय, गण एवं गच्छ उदभुत हुए, जिनमें मुख्यतः मूलसंघ, माथुरसंघ, द्राविड़ संघ, मयूरग्राम संघ, नविलूरसंघ एवं इनकी शाखाएँ कुंदकुंदान्वय कोण्डकुंदान्वय, चित्रकूटान्वय तथा इनमें से निसृत देशीगण, आजिगण, सौराष्ट्रगण, सूरस्तगण, पुन्नागवृक्षमूलगण आदि कई गण एवं गच्छ की श्रमणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं।अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन सभी श्रमणियों का दो वर्गों में वर्गीकरण किया गया है (6) दक्षिण भारत की जैन श्रमणियाँ ; (वर्तमान कर्नाटक, तमिलनाडु) तथा (ii) उत्तर भारत की जैन श्रमणियाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत के दोनों प्रान्तों में आरम्भ से ही दिगम्बर परम्परा में भट्टारक-सम्प्रदाय का प्राधान्य रहा है, अतः अधिकांशतः दिगम्बर आर्यिकाएँ भट्टारक-परम्परा से ही संबद्ध रही है इसके अतिरिक्त दिगम्बर और श्वेताम्बर के मध्य योजक कड़ी के रूप में प्रतिष्ठापित यापनीय संप्रदाय जिसकी श्रमणियों का उल्लेख 8वीं से 11वीं शती तक विशेष रूप से उपलब्ध होता है तथा कालान्तर में यह संप्रदाय दिगम्बर-परम्परा में विलीन हो गया; इन सभी साध्वियों का विवरण दक्षिण भारत की दिगम्बर-परम्परा की श्रमणियों के क्रम में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर भारत का जहां तक प्रश्न है, अभिलेख एवं साहित्य के आधार पर विक्रम की 11वीं सदी से लेकर 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक उनके अस्तित्व की सूचना है, उसके पश्चात् लगभग 150 वर्षों की सुदीर्घ कालावधि तक दिगम्बर-परम्परा की आर्यिकाओं का उल्लेख नहींवत् है। बीसवीं सदी के अंत में पुनः इस परम्परा की आर्यिकाएँ आचार्य आदिसागर जी महाराज 'अंकलीकर' एवं श्री शांतिसागरजी महाराज से प्रारम्भ होकर वर्तमान में विचरण कर रहीं है। ये श्रमणियाँ प्रायः मूलसंघ, कुंदकुंदआम्नाय बलात्कारगण से संबंधित है। एक ही संघ व गण से संबंधित होने के कारण उनका क्षेत्रीय दृष्टि से विभाजन नहीं किया है।' 4.3 दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व दिगंबर परम्परा के अनुसार वी. नि. की द्वितीय शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु 12 वर्षीय भीषण दुष्काल से संघ की सुरक्षा का विचार कर अपने 12 हजार श्रमण समुदाय के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थित हुए थे, और तभी श्रुतकेवली भद्रबाहु के संघस्थ मुनियों के द्वारा कर्नाटक एवं तमिलनाडु प्रान्त में जैनधर्म का प्रवेश माना जाता है। किंतु 10. छव्वाससयाई तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स। ___ तो बोडियाण ट्ठिी, रहवीरपुरे समुप्पण्णा।। विशेषावश्यक भाष्य, जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण कृत, गाथा 2550 11. मा अम्ह लोगो विरज्जही...........अच्छउ एसा तव देवयाए- उत्तराध्ययन नेमिचन्द्रवृति पृ. 51 12. 'जैन कामताप्रसाद', दिगम्बरत्व और दिगम्बर मनि, पृ. 91 203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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