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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास नहीं है। यदि गच्छभेद होता तो श्रमणों के समान ही दोनों परम्पराओं की साध्वियों का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख किया जाता, किन्तु एक ही साध्वी का नेतृत्व यह सिद्ध करता है कि साध्वियों में जिनकल्प और स्थविरकल्प का कोई प्रश्न नहीं उठा था। श्रमणियाँ दोनों परम्परा के श्रमणों का सम्मान करती थीं। परम्परा भेद श्रमणों में भी ऐच्छिक था, अतः श्रमणियों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा था। खारवेल का काल वी. नि. संवत् 316 से 329 तक सुनिश्चित है, अतः यह सम्मेलन इस काल के मध्य ही किसी समय आयोजित हुआ था।
ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण में एक नदी की दो धाराओं के समान अविभक्त श्रमण संघ श्वेताम्बर और दिगंबर- इन दो विशाल धाराओं में स्पष्ट रूप से प्रवाहित होने लग गया था। भेद का प्रमुख कारण वस्त्र था। एक परम्परा ने वस्त्र ग्रहण में परिग्रह माना, दूसरी ने वस्त्र के प्रति मूर्छाभाव में परिग्रह माना, वस्त्र में नहीं। कालान्तर में आगमों की प्रामाणिकता के संबंध में मतभेद होने से दोनों की मान्यताएँ पृथ्क-पृथक् हो गईं। इन दोनों में सैद्धान्तिक मतभेद के मुख्यतः तीन मुद्दे थे, दिगंबरो की मान्यता थी कि -
1. केवली कवलाहार नहीं करते। 2. स्त्रियों की मुक्ति नहीं होती। 3. वस्त्र मात्र परिग्रह है।
श्वेताम्बरों की मान्यता इसके विपरीत है। मेघविजयगणि कृत युक्तिप्रबोध में दिगम्बर और श्वेताम्बर के 84 मतभेदों का वर्णन है।' 1 डॉ. हीरालाल जैन ने भी 42 मतभेदों का विस्तार से उल्लेख किया है। उक्त विभाजन श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी. नि. 609 रथवीरपुर नगर में आचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति से हुआ, और दिगम्बर परम्परा में वी. नि. 606 में श्वेतपट संघ की उत्पति की बात कही गई है। दोनों परम्पराओं के ग्रंथों के एतद्विषयक उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि वी. नि. 606 अथवा 609 के लगभग श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय-भेद प्रकट हुआ।
यद्यपि दोनों परम्पराएँ ई0 सन् की प्रथम शती में श्वेताम्बर दिगम्बर परम्पराओं के संघभेद की चर्चा करती है, किन्तु इसका सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य ईसवी सन् की पांचवी शती का ही मिलता है। हुल्सी के उस काल के अभिलेखों में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक, ओर श्वेतपट्ट ऐसे चार संघ के उल्लेख मिलते है। इनमें निर्ग्रन्थ, यापनीय और कूर्चक संघ अचेल परम्परा से ही सम्बन्धित है।
5. वही भाग 2 पृ. 486 6. वही, भाग 2, पृ. 700-24 7. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. 20 8. मधय एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 328-33 9. (क) भावसंग्रह, गा. 53 से 68
(ख) बृहत्कथा कोष, कथानक 131 पृ. 318-19 (ग) भद्रबाहु चरित्र 4 परिच्छेद 54:55 दृ. जै. मौ. इ. भाग 2 पृ. 6/2
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