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________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.6.7 साध्वी प्रमुखा श्री जेठांजी 'चूरू' (सं. 1919-81) 4/72 आप चूरू के श्री सेवारामजी नाहटा की सुपुत्री थीं। चूरू में ही श्री छगनमलजी बैद के साथ लघुवय में आप वैवाहिक बंधन में बंधी। पतिवियोग के पश्चात् 19 वर्ष की वय में सं. 1919 आषाढ़ शुक्ला 3 को जयाचार्य के द्वारा चूरू में ही संयमी जीवन में प्रवेश किया। आपका शरीर सुन्दर, सुगठित व शौर्य सम्पन्न था, दर्शन मात्र से जनता का मन प्रफ्फुलित हो जाता था। आपकी संयमनिष्ठा, संघीय भावना, गुरु भक्ति, अनुशासनबद्धता, कला-कुशलता, कार्यक्षमता व अद्भुत नेतृत्व शक्ति को देखकर सं. 1954 में सप्तम आचार्य श्री डालगणी ने तृतीय साध्वी प्रमुखा के रूप में चयन किया। आप महान तपस्विनी भी थीं, तपस्या का विवरण इस प्रकार है-उपवास 600, बेले 58, तेले 38, चोले 2, पचोले 10, छह 2, आठ 1, नौ 2, 13, 16, 20, 22 उपवास एक बार। आपके तप की विशेष उल्लेखनीय बात यह है, कि आपकी प्रायः सभी तपस्याएँ चौविहारी होती थी, अर्थात् 22 की तपस्या में भी पानी तक ग्रहण नहीं किया। अनशन रहित चौविहारी 22 दिन के तप का कीर्तिमान स्थापित करने वाली तेरापंथ धर्मसंघ में आप अद्वितीय साध्वी हैं। श्री जेठांजी ने लगभग साढ़े 61 वर्ष की संयम-पर्याय में पांच आचार्यों (जयाचार्य से कालूगणी) का शासन देखा एवं उनकी सेवा भक्ति की। सं. 1981 कार्तिक शुक्ला नवमी को चौविहारी अनशन के साथ वे स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गईं। 7.6.8 श्री भूरांजी 'लाडनूं' (सं. 1924-97) 4/110 आपका जन्म सं. 1910 फाल्गुन शुक्ला 10 को लाडनूं कस्बे के निवासी मुलतानमलजी सरावगी के यहां हुआ। वाग्दान को ठुकराकर 14 वर्ष की उम्र में फाल्गुन कृ. 6 सं. 1924 को श्री जयाचार्य द्वारा आप दीक्षित हुईं। आपने अनेक क्षेत्रों में विचरकर धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया, कइयों को बारह व्रतधारी बनाया। सं. 1934 से आप अग्रणी होकर विचरने लगीं थीं। आप दीर्घ आयु वाली एवं दीर्घ संयम-पर्याय वाली साध्वी जी हुईं। अपने 73 वर्षों के साधनाकाल में आपने जयाचार्य से लेकर आचार्य श्री तुलसी तक छह आचार्यों के शासनकाल देखा, संवत् 1997 पडिहारा में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.6.9 श्री जड़ावांजी 'जयपुर' (सं. 1928-91) 4/135 आपका ससुराल जयपुर में 'बैद' के यहाँ तथा पीहर सामसुखा के यहां था। पतिवियोग के पश्चात् 16 वर्ष की वय में द्वितीय भाद्रपद कृ. 7 को श्री जयाचार्य द्वारा जयपुर में ही आपकी दीक्षा हुई। आपका कंठ अत्यंत मधुर व सुरीला था। आपने अपने दीर्घ संयम जीवन को तप से सजाया। कुल 2053 उपवास, 420 बेले, 339 तेले, 5 चोले, पंचोला व अठाई की तपस्या की। आपका स्वर्गवास सं. 1991 जेठ वदी 9 को मोमासर में हुआ। 7.6.10 श्री गंगाजी 'मांडा' (सं. 1933-93) 4/176 आप जयाचार्य युग की 25वीं कुमारी कन्या थीं, आपने 60 वर्ष के संयम-पर्याय में जयाचार्य से तुलसीगणी तक छह आचार्यों एवं आठ आचार्यों के साधु-साध्वियों के दर्शन किये। आपका जन्म सं. 1922 कार्तिक शुक्ला 8 मांडा (मारवाड) ग्राम में हुआ। 11 वर्ष की वय में जयाचार्य द्वारा मांडा में ही दीक्षित हुईं थीं। आपको छह आगम कंठस्थ थे, स्मरणशक्ति इतनी अच्छी कि साधु साध्वी उनसे विस्मृत सूत्रों को पूछने के लिए आते। आप 817 For Privatlersonal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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