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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.6.3 श्री जेताजी "चितामा' (सं. 1908-52) 4/9 आपका पीहर ताल (मेवाड़) पीपाड़ परिवार में तथा ससुराल चितामा के मांडोत गोत्र में था। पतिवियोग के पश्चात् आपने ज्येष्ठ शु. 3 को साध्वी दीपांजी द्वारा दीक्षा अंगीकार की। आप दीर्घ तपस्विनी साध्वी थीं। आपके उपवास से लेकर साढ़े छहमासी तक के तप का विस्तृत लेखा जोखा बड़ा ही रोमांचकारी है। आपके तप की तालिका इस प्रकार है -1106, बेले 77, चोले 26, पचोले 2, सात व आठ 1-1 बार, नौ 3 बार, ग्यारह व पन्द्रह एक-एक बार, 30 तीन बार 31, 32, 45, 60 (दो बार) 63, 75, 170 एक-एक बार, छहमासी तप चार बार (आछ के आगार से)। इस प्रकार साध्वी जेताजी ने अपने जीवन को विशिष्ट तप साधना द्वारा स्वर्ण की तरह चमकाकर भौतिक युग में अध्यात्मवाद का आदर्श उपस्थित कर दिया। सं. 1952 मृगसिर कृष्णा 12 को जयपुर में सात दिन के चौविहार अनशन के साथ वे स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुईं। 7.6.4 श्री झूमां जी "सिरेवड़ी' (सं. 1908-41) 4/11 आप सिरेवड़ी के चाहवत परिवार की पुत्रवधू एवं कुंदवा के मांडोत परिवार की कन्या थी। पतिवियोग के पश्चात् ज्येष्ठ शुक्ला 5 को श्री दीपां जी द्वारा दीक्षित हुई। आप भी उच्चकोटि की तपस्विनी साध्वी थीं। छह बार छहमासी तप करके आपने तेरापंथ धर्मसंघ में अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित कर दिया। इसके अतिरिक्त आप द्वारा की गई अन्य तपस्या का विवरण इस प्रकार है-बेले 62, तेले 10, चौले 10, पचोले 22, छह, सात, आठ (छह बार), नौ, दस, तेरह, सत्रह, इक्कीस (दो) बावीस, तेवीस के तप एक बार, 30 छह, 32 दो, 60 एक, सवा चारमासी दो बार। इसके अतिरिक्त अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, चार मास एकान्तर व अनेक बार दस प्रत्याख्यान किये। श्रावण शुक्ला 15 को मासखमण तप के पारणे में आप दिवंगत हुई। 7.6.5 श्री केशरजी 'मांडा' (सं. 1914-49) 4/49 आप जयाचार्य युग की छठी कुमारी कन्या थीं। आपकी दीक्षा सं. 1914 भाद्रपद शुक्ला 10 को अपने पिता श्री छजमलजी, माता श्री उमेदांजी तथा भुआ श्री कुंदनांजी के साथ जयाचार्य के द्वारा बीदासर में हुई। आप उस युग की प्रतिभाशालिनि साध्वियों में एक थी। आपका सिंघाड़ा प्रमुख माना जाता था, आपने अनेक क्षेत्रों में विचरण कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। बहन-भाइयों में अध्यात्म के गहरे संस्कार भरे। आपके रतनगढ़ चातुर्मास सं. 1931 में संवत्सरी के दिन 200 पौषध होने का उल्लेख है। कला के क्षेत्र में भी आप सिद्धहस्त थीं। आपके अक्षर स्वच्छ व सुंदर थे, लगभग डेढ़ किलो वजन के पन्ने आपने लिपिबद्ध किये। इस प्रकार आपका जीवन विविध विशेषताओं का संगम था। 7.6.6 श्री रायकंवरजी 'चितामा' (सं. 1916-72) 4/60 आपकी माता साध्वी जेताजी एवं भगिनी श्री नाथांजी के दीक्षित होने के 8 वर्ष पश्चात् आषाढ़ कृष्णा 11 को श्री नाथांजी से आपने संयम ग्रहण किया। आपने अनेक वर्षों तक विचरण कर जन-जन के मन में अध्यात्म ज्योति जागृत की। आप द्वारा छह बहिनों को दीक्षा प्रदान करने का उल्लेख मिलता है, वे हैं-साध्वी पाचांजी, श्री जमनाजी, श्री वखतावर जी, श्री सिरदारां जी, श्री भूरांजी, श्री हगामा जी, श्री रायकंवर जी। 816 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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