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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.6.17 धनवती
कुबेर मित्र की पत्नी धनवती ने संघ की स्वामिनी 'अमितमति' के पास दीक्षा ली। और उन यशस्वती और गुणवती आर्यिकाओं की माता 'कुबेरसेना' ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली।
ततो धनवती दीक्षा, गणिन्या सन्निधि ययौ। माता कुबेरसेना च, तयोरार्यिकयोयो।'
2.6.18 धनश्री
चम्पानगरी के अग्निभूति ब्राह्मण और अग्निला ब्राह्मण की पुत्री थी, सोमश्री और नागश्री की बड़ी बहिन थी। सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र सोमदत्त से विवाहित इसके पति ने वरूण गुरू के पास और इसने अपनी बहिन मित्रश्री के साथ गुणवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण करली थी। मरकर अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुई। वहाँ से च्युत होकर यह पाण्डुपुत्र नकुल हुई।6
2.6.19 धर्ममति
कौशाम्बी नगरी के सेठ सुभद्र व सेठानी मित्रा की पुत्री। इसने जिनमति आर्यिका के पास जिनगुण नामका तप किया, मरकर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्राणी हुई थी।87
2.6.20 नंदयशा
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में भद्दिलपुर नगर के श्रेष्ठी धनदत्त की ये भार्या थी, धनपाल, देवपाल आदि नौ पुत्र एवं प्रियदर्शना एवं ज्येष्ठा इन दो पुत्रियों के साथ नंदयशा ने सुदर्शना नाम की आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण की। नंदयशा ने अपने संपूर्ण परिवार का संबंध परजन्म में बने रहने का निदान कर संन्यास धारण किया, मरकर सबके साथ 13वें आनत देवलोक के शांतकर विमान में उत्पन्न हए। वहाँ से च्यवकर नंदयशा शौरिपुर नगर के स्वामी राजा अंधकवृष्णि की रानी सुभद्रा के रूप में उत्पन्न हुई, निदान के फलस्वरूप सुभद्रा के समुद्रविजय, स्तिमित, हिमवान्, विजय, विद्वान्, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीगच्छ और अभिनन्दन ये नौ पुत्र हुए अंत में दसवें पुत्र का नाम वसुदेव रखा गया। प्रियदर्शना एवं ज्येष्ठा के जीव क्रम से कुंती और माद्री नामकी दो कन्यायें हुई जिनसे उत्पन्न पुत्र 'पांडव' के नाम से विख्यात हुए।188
2.6.21 निर्नामिका
इसने दुर्गन्ध रोग दूर करने के लिये "मुक्तावलीव्रत" किया था, आगे जाकर वासुपूज्य स्वामी के समवसरण में गणधर बनी।189 185. आदिपुराण, (द्वि.) पृ. 457 186. हपु. 64/4-6, 12-13, 111-12, दृ. जैपुको. पृ. 179 187. हपु. 60/101-2, दृ. जैपुको. पृ. 182 188. मपु. 70/182-98; हपु. 18/123-24 दृ. जै.पु.को. पृ. 198 189. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 156
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