________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (iv) कृष्णा : कृष्णा महारानी ने महासिंहनिष्क्रीड़ित तप की आराधना की। इसमें 61 दिन पारणे के 479 दिन
तपस्या के आते हैं। ऐसी चार परिपाटी उन्होंने 6 वर्ष 2 महीने 12 दिन में पूर्ण की। इन्होंने 11 वर्ष तक
संयम का पालन किया। (v) सुकृष्णा : इन्होंने सप्तसप्तति भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार की जिसमें प्रथम सप्ताह एक दत्ति (एकबार दिया
गया) आहार व एक दत्ती पानी की ग्रहण की। क्रमशः सातवें सप्ताह सात दत्ति आहार व सात दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। उसकी समाप्ति पर फिर अष्टअष्टमिका भिक्षु-प्रतिमा फिर नवनवमिका एवं पश्चात्
दसदसमिका भिक्षु-प्रतिमा तप किया। ये 12 वर्ष संयम पालकर मुक्त हुईं। (vi) महाकृष्णा : इन्होंने लघुसर्वतोभद्र तप की आराधना की। इस तप में उन्हें एक वर्ष एक मास दस दिन लगे।
इस तप में 25 दिन पारणा और 75 दिन तप के ऐसे कुल सौ दिन होते हैं। इस तप की चार परिपाटी पूर्ण
की। इनका संयम तेरह वर्ष का था। (vii) वीरकृष्णा : इन्होंने महासर्वतोभद्र तप की आराधना की, इसकी एक परिपाटी में 49 दिन का पारणा व छह
मास 16 दिन का तप ऐसे कुल आठ मास पांच दिन लगते हैं। इस तप की चार परिपाटी पूर्ण करने में 2
वर्ष 8 मास 20 दिन लगे। इनका संयम-पर्याय चौदह वर्ष का था। (viii) रामकृष्णा : इन्होंने चन्दनबाला आर्या की आज्ञा से भद्रोत्तर प्रतिमा तप किया। 40 दिन के इस तप में 5
पारणे और 35 उपवास आते हैं। इस तप को शास्त्रोक्त विधि से पूर्ण करने में उन्हें 2 वर्ष 2 महीने 20
दिन लगे। इन्होंने 15 वर्ष संयम पाला। (ix) पितृसेनकृष्णा : इनका मुक्तावली तप था। इस तप की चारों परिपाटियों को पूर्ण करने में इन्हें तीन वर्ष
दस महीने लगे। इन्होंने 16 वर्ष तक संयम का पालन किया। (x) महासेनकृष्णा : श्रेणिक राजा की दसवीं रानी महासेनकृष्णा ने आयम्बिल वर्धमान तप की आराधना की
इसमें उन्हें 14 वर्ष 3 मास 20 दिन लगे। इनका संयम पर्याय 17 वर्ष का था।
इस प्रकार इन दसों रानियों ने घोर तपश्चर्या की अग्नि में अपने अष्ट कर्म समूहों को भस्मीभूत कर अन्त में एक मास की संलेखना की और केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर सिद्ध गति में पहुंची।
अवदान : कर्म समूह को भस्मीभूत करने एवं आत्म-शक्तियों को प्रगट करने के लिये संयम व तप उत्कृष्ट साधन है। काली आदि रानियों ने संयम व तप की दुष्कर साधना कर विश्व को यह दिखा दिया कि नारी मोम के समान कोमल ही नहीं वह वज्र के समान सुदृढ़ भी है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णित रानियों की तपस्या के स्वर्णिम पृष्ठ हमारी रोमराशि को प्रकंपित कर देने वाले आख्यानों का संगान है। आज भी हजारों-हजार मुमुक्षु आत्माएँ इन प्रज्वलित दीपमालाओं से प्रकाश ग्रहण कर तप व संयम की साधना में अग्रसर होती हैं।
3.2.15 दुर्गन्धा/गजगन्धा
यह राजगृही की वैश्या की कन्या थी, जन्म से ही इसके शरीर की दुर्गन्ध असह्य होने से वैश्या ने उसे मार 32. अन्तकृदृदशांग सूत्र, वर्ग 8 अध्याय 1-10
178
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org