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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 15, 11, 10, 9, 8 उपवास, बीसस्थानक, तेरहकाठिया, गणधर तप, सिद्धाचल आदि विविध तप करके स्वयं के जीवन को तेजस्वी बनाया। इनके प्रतिबोध से 6 शिष्याएँ - चंदाश्रीजी, कंचनश्रीजी, सुमंगलाश्रीजी, दक्षाश्रीजी, राजुलाश्रीजी, कल्पज्ञाश्रीजी एवं 40 प्रशिष्याएँ हुईं- निरूपमाश्रीजी, कल्पलताश्रीजी, कल्पगुणाश्रीजी, कल्परत्नाश्रीजी, नंदियशाश्रीजी, आर्ययशाश्रीजी, कल्पप्रज्ञाश्रीजी, आदर्शप्रज्ञाश्रीजी, वीक्षितगुणाश्रीजी, अमीरत्नाश्रीजी, नम्रदर्शिताश्रीजी, सौभाग्ययशाश्रीजी, सुचिरत्नाश्रीजी, सूर्योदया श्रीजी, राजेन्द्र श्रीजी, सुनिला श्रीजी, पद्मयशाश्रीजी, कल्पयशाश्रीजी, अनिलाश्रीजी, भद्रगुणाश्रीजी, राजरत्नाश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, सुयशा श्रीजी, जयज्ञाश्रीजी, दिव्यज्ञाश्रीजी, प्रशमिताश्रीजी, सद्गुणाश्रीजी, प्रगुणाश्रीजी, विपुलगुणाश्रीजी, प्रीतिपूर्णाश्रीजी, पीयूषपूर्णाश्रीजी, अमिताश्रीजी, कल्पधराश्रीजी, कुमुदयशाश्रीजी, भव्यरत्नाश्रीजी, भव्यज्ञाश्रीजी, जयदर्शिता श्रीजी, प्रियदर्शिता श्रीजी, भद्रदर्शिता श्रीजी, रिद्धिदर्शिताश्रीजी । इस प्रकार ज्ञानी, विदुषी तपस्विनी विशाल शिष्या - परिवार का कुशल संचालन कर संवत् 2042 अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ। 354 5.3.7.4 श्री लावण्यश्रीजी (1986 स्वर्गस्थ ) वर्तमानकालीन साध्वी संस्था में लावण्यश्रीजी का नाम मूर्धन्य स्थान पर है। इस विभूति ने पिता रूगनाथभाई और माता केवलीबहन के यहाँ संवत् 1975 पाटड़ी ग्राम में जन्म लिया। रूगनाथभाई प्रारंभ से ही संसार से विरक्त आत्मा थी, उन्होंने पंन्यास श्री चरणविजयजी के पास दीक्षा अंगीकार की, उनका नाम रंजनविजयजी रखा गया। संस्कारों की प्रबलता से लावण्यश्रीजी ने 11 वर्ष की उम्र में अपनी लघु भगिनी श्री वसंतश्रीजी के साथ दीक्षा अंगीकार की, छ महिने के बाद इनकी मातुश्री भी दीक्षित होकर श्री कंचनश्रीजी बनीं। ये तीनों श्री लाभश्रीजी के चरणों में समर्पित हुईं। लावण्यश्रीजी ने आध्यात्मिक ग्रंथों का खूब सूक्ष्मता से परिशीलन किया, संस्कृत - प्राकृत भाषा पर भी आधिपत्य स्थापित किया । ज्ञान-ध्यान के साथ तप की वेदिका पर आरूढ़ होकर 16 वर्ष की उम्र में मासक्षमण जैसी उग्र तपस्या की, तत्पश्चात् सिद्धितप, दो वर्षीतप वर्धमान ओली 59, बीशस्थानक तप कर्मसूदनतप, पखवासा, छट्ठ अट्टम अठाई, 15, 16 उपवास आदि अनेकविध तपस्याएँ कीं । स्व-कल्याण के साथ जन-कल्याण हेतु भी ये सतत जागरूक रहीं, कइयों को आध्यात्मिक सत्य का परिज्ञान करवाया, अन्तर्मुख बनाया, कइयों को देहाध्यास और देहाभ्यास से छुड़वाकर जीवमैत्री, जड़ विरक्ति और जिनभक्ति में संयोजित किया, इनके अनुशासन में 90 से अधिक साध्वियाँ तप, ज्ञान ध्यान, जप, मौन आदि की साधना तथा शासन प्रभावना का महती कार्य संपादित कर रही हैं। इनकी स्वयं की 23 शिष्याएँ और उनकी शिष्या - प्रशिष्या परिवार के नाम इस प्रकार 355_ वसंत श्रीजी - ज्योतिप्रभाश्रीजी, पूर्णभद्राश्रीजी, जयमालाश्रीजी, किरणमाला श्रीजी, सुप्रज्ञाश्रीजी, विज्ञप्ताश्रीजी, प्रज्ञप्ताश्रीजी, वारिषेणाश्रीजी । जयशीलाश्रीजी, कीर्तिवर्धनाश्रीजी, मंगलवर्धनाश्रीजी, नंदिवर्धनाश्रीजी, मैत्रीवर्धनाश्रीजी, कृतज्ञाश्रीजी, कर्मज्ञाश्रीजी, ऋजुप्रज्ञाश्रीजी, प्रशमनाश्रीजी, हितप्रज्ञाश्रीजी, पुनीतप्रज्ञाश्रीजी, देवप्रज्ञाश्रीजी, रम्यप्रज्ञा श्रीजी, जिनप्रज्ञाश्रीजी, सिद्धिप्रज्ञाश्रीजी, चरणप्रज्ञाश्रीजी, तत्त्वशीलाश्रीजी, कीर्तनप्रज्ञाश्रीजी, विश्वदर्शिताश्रीजी, पावनप्रज्ञाश्रीजी, अक्षयप्रज्ञाश्रीजी, वज्रसेनाश्रीजी, दिव्यदर्शनाश्रीजी । 354. वही, पृ. 501-503 355. वही, पृ. 506-09 - Jain Education International 406 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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