________________
प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
2.7 जैन कथा - साहित्य में वर्णित श्रमणियाँ
जैन कथा-साहित्य अत्यंत विस्तृत और विशाल है, कथाओं का मूल उत्स प्रथमानुयोग है। पंचकल्पभाष्य में उल्लेख है कि आचार्य कालक (वी. नि. 605) ने जैन परम्परागत कथाओं का संग्रह किया और इस क्षीण होते साहित्य का 'प्रथमानुयोग' नाम से पुनरूद्धार किया। इस उल्लेख के प्रमाण वसुदेवहिण्डी, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक सूत्र तथा अनुयोगद्वार की हारिभद्रीया वृत्ति आदि ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। 245 इसके अतिरिक्त भी अनेक जैन कवियों ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और लोकभाषाओं में अनेक कथा - आख्यानों की रचना की है, इनमें अधिकांश कथाओं का मूल उद्देश्य शीलव्रत की प्रतिष्ठा करना है, अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु नायक-नायिका अनेक विपत्तियाँ भोगने के बाद भी प्रलोभनों से दूर रह अपने एकनिष्ठ प्रेम की अडिगता सिद्ध करते हैं, अंत में किसी जैन मुनि के उपदेश को श्रवण कर दीक्षा अंगीकार करते हैं प्रत्येक कथा के पीछे उच्च आदर्श, प्रेरकतत्व और जीवन निर्माणकारी मूल्य निहित है। ये कथा और आख्यान रास, चौपाई, चरित्र, ढाल, चम्पू आदि शीर्षकों में रचित हैं।
2.7.1 अनंतमती
यह चम्पापुरी के प्रियदत्त श्रेष्ठी एवं पत्नी बुद्धिश्री की कन्या थी । बचपन में ही धर्मकीर्ति आचार्य की देशना सुनकर उसने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया था। इस व्रत के पालन में अनेक विकारवर्धक प्रलोभन एवं कामान्ध पुरूषों के आक्रमणों के बावजूद भी उसने जान हथेली पर लेकर अखंड ब्रह्मज्योति जगाये रखी। अंत में, आर्या पद्मश्री से दीक्षा लेकर स्वर्ग प्राप्त किया । 246
2.7.2 आरामशोभा
मातृविहीन विद्युत्प्रभा अपनी सोतेली माँ से त्रस्त एकदिन वन में गायों को चरा रही थी, उस समय नागदेव ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि उसके सिर पर सदा हरा भरा कुंज रहेगा तब से उसका नाम 'आरामशोभा पड़ गया। पाटलीपुत्र का राजा उसके साहस व कुंज से प्रभावित होकर अपनी पटरानी बना लेता है, उसके पश्चात् भी उसे अपनी सोतेली मां की कुटिलता का शिकार होना पड़ा, किंतु बाद में राजा जितशत्रु ने असली आरामशोभा को पहचान लिया, और वे सुख रहने लगे। कालान्तर में मुनि से अपने पूर्वभव का वृत्तांत सुनकर आरामशोभा ने दीक्षा ग्रहण की और तपश्चरण कर सद्गति प्राप्त की । 247 आरामशोभा की कथा जैन कथाकारों को बहुत प्रिय रही है, इस पर संस्कृत, प्राकृत, गुजराती सभी भाषाओं में कई संस्करण प्राप्त होते हैं। 248
2.7.3 कनकलता, चम्पकलता
बसंतपुर के राजा पुष्पसेन की रानियां थीं । पूर्वभव के सम्बन्ध के कारण एक-दूसरे से अतिशय प्रीति व वियोग-संयोग का दृश्य उपस्थित होने पर राजा पुष्पसेन व दोनों रानियां दीक्षा लेकर निर्वाण को प्राप्त हुई | 249 245. उपाध्याय पुष्करमुनिजी, जैन कथाएं (संपादकीय )
246. उपासकाध्ययन, आठवां कल्प, आचार्य सोमदेवकृत, दृ. जैन कथाएं, 'ब्रह्मज्योतिकथा', भाग 29
247. आधार - मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, श्री देवचंद्रसूरिकृत, ई. 1089-90; दृ. जैन कथाएं, भाग 66
248. देखें- श्री गणेश ललवानी का लेख, श्री भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ पृ. 81-86, कलकत्ता ई. 1986 249. राजस्थानी जैन लोककथा साहित्य के आधार पर, दृ. जैन कथाएं, भाग 52
Jain Education International
149
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org