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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
6.5.8.7. आर्या श्री चन्दाजी, श्री उमाजी, श्री नन्दूजी, श्री जोतांजी (सं. 1895)
संवत् 1895 चैत्र शु. 2 की तपस्वी श्री परसरामजी म. के शिष्य श्री मूलचंदजी म. द्वारा लिखित 'देवकी चौपाई' की प्रति में उक्त आर्याओं के नाम मिलते हैं। तपस्वी श्री रतनचंदजी के शिष्य श्री हेमराजजी ने सं. 1876 में आर्या उमाजी के पठनार्थ एक स्तवन लिखा था।14
6.5.8.8. प्रवर्तिनी श्री मेनकुंवरजी (सं. 1940-2007)
__ आपका जन्म संवत् 1933 में पेटलावद में श्री कस्तूरचन्दजी वोरा की धर्मपत्नी जड़ावबाई की कुक्षि से हुआ। जब आप लगभग 8 वर्ष की थी, एकबार माता ने चूल्हे में जलाने के लिये लकड़ी लाने को कहा, आप लकड़ी ला रही थी कि अचानक हाथ से लकड़ी छूट गई, लकड़ी घुनवाली थी अत: उसका आटा नीचे गिर गया। बाल सुलभ कोतुहल से आपने उस आटे को चिमटी से उठाया तो उसमें घुण कुलबुलाते देख आपका हृदय कांप उठा,
और सीधे स्थानक में वाल्हीजी महासतीजी के पास दीक्षित हो गईं। आपके साथ आपकी माता ने भी दीक्षा ली. दीक्षा संवत् 1940 में हुई।
आप प्रखर प्रतिभासंपन्न थीं। मात्र 16 वर्ष की आयु में आपने 7 शास्त्र कंठस्थ कर लिये थे। चन्द्र सूर्य प्रज्ञप्ति छोड़कर शेष 30 शास्त्रों का अध्ययन किया, दोसौ थोकड़े एवं एक हजार के लगभग श्लोक सवैया, दोहे आदि कंठस्थ कर लिये थे। आपको स्वावलंबन बहुत ही प्रिय था, 15 वर्ष की वय से ही अपने हाथों से केश लुचन करना प्रारम्भ कर दिया था। आपके तात्त्विक, मधुर, सारगर्भित और प्रभावशाली प्रचनों से प्रभावित होकर कई स्त्रियाँ महाव्रतधारिणी बनीं। अनेकों स्त्री-पुरूष अणुव्रती सम्यक्त्वी और सप्त कुव्यसन त्यागी बने। सैलाना में भारत के वायसराय लार्ड इरविन ने सपरिवार आपके दर्शन कर प्रवचन का लाभ लिया था। सं. 1868 में सैलाना नरेश की वर्षगांठ के उत्सव पर वहाँ के तत्कालीन दीवान श्री प्यारेकृष्णजी कौल की विनति पर वहाँ पधारकर 27 सार्वजनिक प्रवचन दिये। वहाँ 5 प्रवचनों में स्वयं नरेश भी उपस्थित हुए। सैलाना में आपकी प्रेरणा से नरेश ने चैत्र शु. 13 को प्रतिवर्ष राज्यभर में 'अमारि' की घोषणा करवाई, उस दिन को 'अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जाता था। 27 गांवों ने भी आपके प्रवचनों का लाभ लिया था। ऐसा छोटे बड़े कई रजवाड़ों में अमुक तिथियों पर अहिंसा पालन की घोषणाएँ हुई थीं। आपको संवत् 1978 में 'प्रवर्तिनी पद' प्रदान किया गया था। सं. 2000 से 2007 तक आप इन्दौर में स्थिरवास रहीं। और वहीं 2007 कार्तिक शुक्ला 11 को कुछ समय के अनशन पूर्वक देह त्याग किया। आपकी पांच गुरू बहनें थीं- श्री दोलाजी, श्री माणकजी, श्री जड़ावकंवरजी (संसारपक्षीय माता) श्री रतनकंवरजी और श्री गेन्दाजी। श्री जडावकंवरजी को 11 दिन का, श्री रतनकुंवरजी को 5 दिन का और श्री गेंदाजी म. को 22 दिन का संथारा आया था। आपकी 14 शिष्याएँ और 20 प्रशिष्याएँ आपके सान्निध्य में दीक्षित हुई थीं। बड़ी शिष्या गुलाबकुंवरजी सं. 1954 में दीक्षित हुई, उन्होंने ही दिन के अनशन से देह त्याग किया। दूसरी शिष्या राजकुंवरजी थीं, उनकी दीक्षा सं. 1958 में हुई, वे प्रवर्तिनी पद पर अधिष्ठित रहीं।15
6.5.8.9. श्री दौलांजी (सं. 1946 से पूर्व)
आपके विषय में इतना ही उल्लेख मिलता है कि आपश्री मानकुंवरजी की गुरूणी थीं, श्री हीरांजी के साथ 315-316. वही, पृ. 209-15
नोट: प्रवर्तिनी श्री मेनकंवरजी के शिष्या-परम्परा के लिये देखें-महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ खंड-3, पृ. 338
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