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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
उल्लेख है, पर उसमें उज्जैन शाखा के तृतीय आचार्य श्री माणकचंदजी की आज्ञा का उल्लेख है, पू. श्री का आचार्यकाल सं. 1803 से सं. 1850 के बीच पड़ता है, अत: वह चिट्ठी भी इसी काल के बीच की होनी चाहिये, उसका अनुमान सं. 1817 से 1820 के मध्य का माना है। उस समय आर्या कमांजी, सुकड़जी, केसरजी, वीराजी ये 4 प्रभावशालिनी आर्याएँ थीं, इनका दक्षिण में भी प्रभाव था।309
6.5.8.3. आर्या वीराजी (सं. 1786-1828)
आर्या वीराजी एक विशिष्ट व्यक्तित्व वाली साध्वी हो गई हैं। आपका जन्म धारा नगरी में हुआ था, पिता का नाम केलाजी चौधरी और माता का नाम राजीबाई था। आपका जन्म संवत् 1754 के लगभग हुआ था और आपने सं. 1786 के लगभग उस समय की प्रसिद्ध साध्वी श्री नाथाजी के पास परम वैराग्य से प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके विषय में 'केसरबाई' नाम की श्राविका ने अनशन वर्णन की गीतिका बनाई थी, उसमें आपको धर्मदासजी म. की अनुयायिनी साध्वी बताया हैं। आपके माता-पिता वंश तथा भाई का नाम चौधरी भगवतीदासजी दिया है। गुरूणी नाथाजी तथा गुरूबहन अजबजी का नामोल्लेख भी किया है। आपके मन में संथारा करने की अभिलाषा हुई, अतः आपने प्रथम एक पक्ष के एकांतर किये, रि बेला, फिर तेला और चोले के साथ ही आजीवन तिविहार कर प्रत्याख्यान कर लिया। 43 वर्ष दीक्षा पाली, 75 वर्ष की आयु में सं. 1827 फाल्गुन कृ. 9 शुक्रवार को 15 दिन का अनशन पालकर तीसरे पहर में देह त्याग किया।10
6.5.8.4. श्री आर्या दलूजी (सं. 1800 के लगभग)
आपके हाथ की लिखी हुई एक सज्झाय है, उसमें संवत् का उल्लेख नहीं है। इसमें इन्होंने अपने को श्री देवीचन्दजी म. की प्रसाद प्राप्त शिष्या लिखा है, यदि ये देवीचंदजी म. श्री धर्मदासजी म. के शिष्य श्री देवी सिंहजी हो तो श्री दलुजी का अस्तित्व काल सं. 1800 के आसपास ठहरता है, क्योंकि श्री देवीसिंहजी म. की हस्तलिखित व्यवहार सूत्र की सं. 1796 नौरंगाबाद में और 'परमात्मपुराण' की सं. 1800 की देवास में लिखी हुई प्रतिलिपि प्राप्त होती है। अतः इसी समय आर्या श्री दलुजी ने उनके दर्शन राजगढ़ में किये होंगे।
6.5.8.5. श्री मयाजी, राजाजी (सं. 1865) ___ संवत् 1865 में इन आर्याओं का अस्तित्व था। ये अपने ऊपर रतलामशाखा के प्रसिद्ध संत श्री दानाजी स्वामी की विशेष कृपा मानती थी।12
6.5.8.6. श्री आर्या सजाजी (सं. 1868)
संवत् 1868 में इन्होंने 'श्राद्ध प्रतिक्रमण' की प्रतिलिपि की थी। उसमें आपने अपने को 'दानाजी म.' की। शिष्या लिखा है तथा अपने ऊपर उनकी कृपा का उल्लेख भी किया है।13
309. वही, पृ. 205-6 310. वही, पृ. 206 311-314. वही, पृ. 208
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