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महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ
शिलालेख में इतना ही स्पष्ट होता है कि आर्यिका जीवा की शिष्या दत्ता की निवर्तना (उपदेश ) से ग्रहशिरि ( ग्रहश्री) .. दान दिया था ? यह कार्य शक वर्ष 81, वर्षा ऋतु के प्रथम मास के छठे दिन संपन्न हुआ था ।"
3.3.2.13 आर्यिका धरणिवृद्धि (सं. 219 )
सं. 84 में दमित्र और दत्ता की पुत्री कुटुम्बिनी के धरणिवृद्धि आर्यिका की प्रेरणा से वर्धमान भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने का उल्लेख मिलता है। 9
3.3.2.14 आर्या धर्मार्था (सं. 220 )
आर्या धर्मार्था के उपदेश से कंकाली टीले के दक्षिण पूर्व भाग में धनहस्ति की धर्मपत्नी और गुहदत्त की पुत्री द्वारा एक शिलापट्ट दान में देने का उल्लेख (E. I. Vol-1, No. 22 ) है । उस पर स्तूप की पूजा का सुंदर दृश्य भी अंकित है। 100
जैन शिलालेख संग्रह भाग 2 में 'धामथा' नाम का उल्लेख हुआ है, और उसे कोट्टियगण, ठानिय कुल वइरा शाखा के आर्य अरह ( दिन्न) की शिष्या कहा है। 101
3.3.2.15 आर्या वसुला (सं. 221 )
आर्या संगमिका की ये शिष्या थीं, इसके पिता का नाम दास दिया है, इनकी प्रेरणा से कनिष्क सं. 1593 में श्रेष्ठी वेणी की पत्नी भट्टीसेन की माता कुमारमित्रा ने सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की 102 इन्हीं आर्या वसुला के उपदेश से हुविष्क सं. 86 (ई. 164) में दास की पुत्री प्रिय की पत्नी ने एक जिन प्रतिमा का दान किया था। 103
इन दोनों लेखों में 71 वर्षों का अंतर होने से अनुमान होता है कि वसुला दीर्घ आयु वाली श्रमणी थी । कुमार मित्रा को उपदेश देने के समय यदि वसुला की आयु 25 वर्ष की मान ली जाय तो प्रिय की पत्नी को उपदेश देने के समय वह 96 वर्ष की रही होगी। जो एक तपस्विनी श्रमणी के लिये असंभावित नहीं कही जा सकती।
कुमारमित्रा वाले लेख में आर्या संगमिका के गुरू आर्य जयभूति का भी नाम दिया है, प्रिया के शिलालेख में वह नहीं है। लिस्ट ऑफ ब्राह्मी इंस्क्रिपशंस' में जयभूति को 'मैघिक / मेहिक' कुल का कहा है। 104 यह मेहिक कुल कल्पसूत्र पट्टावली में उल्लेखित है । 105
98. जैन शिलालेख संग्रह, भा 2, सं. 61
99. आ. इंदु. अभि. ग्रंथ, खंड 4 पृ. 54
100. डॉ. हीरालाल जैन, संग्रह 68, मथुरा - प्राकृत, ( वर्ष 95 )
101. दुगड़ हीरालाल, मध्य एशिया और पंजाब मैं जैनधर्म, पृ. 450
102. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, सं. 26
103. वही, भाग 2, सं. 63
104. लि. ब्रा. इं. पृ. 14,
105. सचित्र कल्पसूत्र, पृ. 221
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