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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से बच निकलती है और आखिर उन ठगों का हृदय बदलकर उन्हें सभ्य नागरिक बना देती है। लीलावती नारी होते हुए इतने साहस और चतुराई से काम करती है, यह सचमुच एक आश्चर्य तथा प्रेरक घटना है। अंत में मुनिवर सुमति के पास लीलावती और श्रीराज ने सयंम अंगीकार किया। 305
2.7.55 लीलावती
सामंतपुत्री लीलावती का विवाह राजगृह के सिंह नामक राजपुत्र के साथ हुआ। मित्र जिनदत्त के सम्पर्क से वे जिनधर्मी बने, एकबार राजगृह में पधारे समरसेन मुनि से अपना व मुनि का पूर्वभव सुनकर लीलावती और सिंह को जातिस्मरण ज्ञान हो गया, और जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पद पाया। इस पर अनेक कवियों की रचनाएं हैं। 306
2.7.56 विजया
कनकपुरी के दृढ़धर्मी श्रावक मणिचन्द्र के पुत्र गुणचन्द्र की पत्नी थी, माता-पिता की अविनय के कारण दुःखी व दरिद्री जीवन व्यतीत करने के पश्चात् सद्गुरू से बोध की प्राप्ति होती है, विनय व सेवा गुण से गई हुई लक्ष्मी व कीर्ति पुनः प्राप्त हो जाती है। केशीश्रमण के उपदेश से आर्या सुव्रता के पास दीक्षा लेकर विजया 11 अंगों का अध्ययन कर अंत में 12वें देवलोक में देव बनी 1307
2.7.57 विजया
कच्छ देश के अर्हद्दास के पुत्र विजय के साथ विजया का विवाह हुआ था, दोनों ने 15 दिन ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का नियम लिया हुआ था, विजय ने शुक्लपक्ष के 15 दिन, विजया ने कृष्ण पक्ष के 15 दिन। और इसी व्रत ने उन्हें अखंड ब्रह्मचारी बना दिया। जब अंगदेश के चम्पानगरी के बारहव्रती श्रावक सेठ जिनदास की शुभेच्छा हुई कि मैं 84 हजार मुनियों को अपने हाथ से एक साथ पारणा कराऊं तो विमल केवली ने उसकी इच्छापूर्ति की राह बताते हुए विजय और विजया के अखंड ब्रह्मचर्य का रहस्योद्घाटन किया और कहा - " ऐसे ब्रह्मचारी दम्पती 84 हजार मुनियों के बराबर है, उन्हें भक्तिपूर्वक भोजन करवा कर तुम 84 हजार मुनि को भोजन करवाने का लाभ प्राप्त कर सकते हो, ऐसे दम्पत्ति भरतखंड में अकेले ही हैं। " रहस्य प्रगट हो जाने पर निर्णयानुसार बड़े उच्च व उत्कृष्ट परिणामों से दोनों ने संयम ग्रहण किया कठोर तप संयम व चारित्र का पालन कर अंत में मोक्ष गति प्राप्त की। 308
विशिष्ट अवदान - उत्कट ब्रह्मचर्याराधना में भारतीय इतिहास का निश्चय ही यह एक अद्भुत उदाहरण है। इस कथा से प्रेरणा लेकर अनेक लोग ब्रह्मचारी बने, कई बारहव्रतधारी श्रावक बने और कई संयमी बने ।
305. आधार - लीलावती कथा, भूषणभट्टपुत्रकृत (प्राकृत) (सं. 1265), दृ. - जैन कथाएं "नहले पर दहला", भाग 29 अन्य रचनाएं देखें- जै. सा. का बृ. इ. भाग 2 पृ. 590-91,
306. आधार- सुधर्मगच्छ के जिनेश्वरसूरि कृत 'निव्वाण लीलावई कहा' (प्राकृत, संवत् 1082 और 1095 के मध्य) दृ.-जै. सा. का बृ. इ. भाग 6 पृ. 343
307. श्री रत्नऋषि जी कृत मणिचंद्र गुणचंद्र चरित्र (वि. सं. 1968 ) के आधार पर जैन कथाएं, भाग 47
308. आधार- विजय सेठ विजया प्रबन्ध, खरतरगच्छीय श्री ज्ञानमेरूकृत पाटण, (संवत् 1665 ) दृ. - जैन कथाएं, भाग 33 अन्य उपलब्धि सूत्र- जै. सा. का बृ. इ. भाग 2 पृ. 195-96, 406,568
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