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________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ पंचम छठी कालकाचार्य (द्वितीय) की भगिनी सरस्वती मुरूण्ड राजकुमारी, आर्य वज्र की माता सुनन्दा एवं आर्य वज्र पर अनुरक्ता रूक्मिणी, आर्य रक्षित की माता रूद्रसोमा, आर्य नन्दिल के काल में वैरोट्या आदि आर्य वज्रसेन के काल में ईश्वरी आदि सातवीं इस प्रकार वी. नि. की प्रथम से सातवीं शताब्दी तक श्रमणियों का अस्तित्व इस बात का सूचक है कि विभिन्न आचार्यों के काल में भी श्रमणी-संघ की अविच्छिन्न धारा चलती रही, यद्यपि विगत की बीच-बीच की कालावधि में साध्वियों के नामोल्लेख नहीं हैं, तथापि उक्त श्रमणियों को प्रव्रज्या प्रदान करने वाली साध्वियां और उनकी शिष्याओं का क्रम निर्बाध गति से चलता रहा, यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। साथ ही वी. नि. की द्वितीय शताब्दी में हुई आर्या यक्षा आदि एवं छठी शताब्दी में बालक वज्र के समक्ष एकादशांगी का स्वाध्याय करने वाली साध्वियों के उल्लेखों से यह भी प्रमाणित होता है कि बीच के अनेक अन्तरालों में न केवल श्रमणी परम्परा ही अपितु सम्पूर्ण एकादशांगी की पारंगता साध्वी परम्परा भी सदा अक्षुण्ण रूप से विद्यमान रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो आर्य महागिरी, आर्य सुहस्ती एवं आर्य वज्र आदि को साध्वियों द्वारा एकादशांगी कंठस्थ कराने के उल्लेख प्राचीन नियुक्ति एवं चूर्णियों में नहीं मिलते। __यहाँ एक बात और भी उल्लेखनीय है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा भेद वी. नि. 606 अथवा 609 के आसपास माना गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में दस पूर्वधारी अंतिम आचार्य वज्र का स्वर्गगमन 584 में हुआ। हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में प्रभावना अंग का वर्णन करते हुए जिन वज्रमुनि को जिनशासन की महिमा बढ़ाने वाला कहा गया है, उनका समय भी यही है इससे प्रतीत होता है कि दोनों परम्पराओं को मान्य वज्र मुनि आर्य वज्र हैं जो छठी शताब्दी में आर्यरक्षित के विद्यागुरू हुए। उनके समय तक श्रमण संघ में विभेद की स्थिति नहीं थी। आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् दिगम्बर श्वेताम्बर का स्पष्ट भेद दिखाई देता है। यही कारण है कि सातवीं शताब्दी तक की श्रमणियाँ किसी गच्छ से अनुबंधित नहीं हुई। यहाँ हम महावीरोत्तर युग की उन श्रमणियों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके उल्लेख प्रायः श्वेताम्बर परम्परा मान्य ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं, तथा जिन पर किसी गण कुल या शाखा की मोहर अंकित नहीं है। 3.3.1.1 धारिणी/भद्रा (वि. नि. 1) धारिणी राजगृही के धनकुबेर श्रेष्ठी ऋषभदत्त की भार्या थी। निःसन्तान होने से वह सदा चिन्तित और दुःखी रहती थी। बाद में अटूट निष्ठा के साथ निष्कपट भाव से निरंतर धर्म-आराधना करते हुए धारिणी ने गर्भ धारण किया और सुधर्मास्वामी द्वारा विघ्न बतलाने पर 108 आयाम्बिल व्रत किए।" गर्भ प्रवेश पर धारिणी ने स्वप्न में जंबूफल देखा। गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम जंबूकूमार रखा। बाल्यकाल पूर्ण होने पर उसने अपने पुत्र का आठ श्रेष्ठी कन्याओं से वाग्दान किया। 38. जै.मौ. इति., भाग 2 पृ. 582 39. डॉ. हीराबाई बोरदिया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, पृ. 133 40. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भा. 2 पृ. 213 181 For Private & Eersonal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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