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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
का कभी आपने अपने जीवन में उपयोग नहीं किया। राजकोट में महात्मा गांधीजी ने भी आप से ज्ञानचर्चा एवं मंगलपाठ श्रवण किया। उस समय राजकोट, जेतपुर में प्लेग के उपद्रव से सभी भयभीत थे, किंतु आपके तप-संयम के प्रभाव से जैन समाज में कोई भी क्षति नहीं हुई। सं. 1983 जेतपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय 51 खंड की पालकी बनीं।281
6.5.3.4 श्री देवकुंवरबाई महासती (सं. 1956-87)
आपका जन्म सं. 1937 में चोरवाड़ निवासी श्री धरमसी भाई की धर्मपत्नी कस्तूरबहन की कुक्षि से हुआ। शादी के तीन वर्ष पश्चात् वैधव्य के दु:ख से संसार की असारता का बोध कर दीक्षा लेने का निश्चय किया तो
माणेक गुरूदेव ने कहा कि 25 मासखमण तप की उत्कृष्ट आराधिका सुंदरबाई महासती के साथ दिव्य प्रभावशाली मीठीबाई महासतीजी वृद्धावस्था के कारण गोंडल में विराजमान हैं, उनके पास संयम लेकर उनकी सेवा करो, उनके आशीर्वाद से तुम्हारा संयम और परिवार अमृतबेलवत् वृद्धिंगत होगा। पूज्यश्री के वचनों को शिरोधार्य कर आपने उनके पास दीक्षा अंगीकार की। आपकी सात विदुषी शिष्याएँ बनीं। उन्हींका परिवार आज वटवृक्ष की तरह शतशाखी बनबर संपूर्ण भारत में विचरण कर रहा है। 50 वर्ष की उम्र में, जामनगर में सं. 1987 को आपने संथारा सहित स्वर्गगमन किया।282
6.5.3.5 श्री उजमबाई महासतीजी (सं. 1961-2006)
आपका जन्म सं. 1940 में माता हीरूबहन व पिता जीवनराजभाई के घर शीतला कालावाड़ में हुआ। 13 वर्ष की उम्र में लग्न और 17 वर्ष की वय में वैधव्य के दुःख से त्रस्त पू. देवकुंवरबाई के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। आपकी प्रतिभा संपन्न मेधा, भव्य शारीरिक सोष्ठव व प्रखर प्रवचन को श्रवण कर कोई भी मंत्र-मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। आप समाज में व्याख्यान वाचस्पति, प्रखरवक्ता आदि नाम से संबोधित किये जाते थे। आपके प्रवचनों में राजा, महाराजा, अमलदार आदि भी उपस्थित होते थे। आपकी शिष्याओं में प्रभाबाई, छबलबाई, चंपाबाई, जयाबाई, गुलाबबाई आदि प्रमुख हैं। इसी काल में श्री जेतुबाई महासतीजी (सं. 1961-2001) प्रखर प्रभावसंपन्ना साध्वी हुई, उन्होंने सैंकड़ों राजपूतों को शराब, मांस आदि व्यसनों से मुक्त कराया था।283 6.5.3.6 श्री मणीबाई महासती (सं. 1962-89)
आपका जन्म गोपाल ग्राम (सौराष्ट्र) में पिता मोतीचंदभाई एवं माता दुधीबाई के यहां हुआ। जब आप तीन मास की नन्ही बालिका थीं, तभी पिता ने संपन्न परिवार में आपकी सगाई करदी, किंतु श्री देवकुंवरबाई महासती के सदुपदेश से वैराग्य से अनुरंजित मणीबाई ने पति को भ्राता के समान मान 'मांगरोल' में दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय किया। वहाँ के नरेश हुसेन मियां ने कुंवारी छोटी लड़की को दीक्षा लेते देख उससे कई प्रश्न पूछे, उसके दृढ़ व सचोट जवाबों को श्रवण कर नरेश ने प्रसन्न होकर दीक्षा का संपूर्ण व्यय अपनी ओर से किया। आपका व्याख्यान इतना मधुर और वैराग्यपूर्ण होता था, कि जैन-जैनेतर लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। जहां भी आप 281. गोंडल गच्छ दर्शन, पृ. 56 282. वही, पृ. 57 283. वही, पृ. 68
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