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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.6.43 अर्जिका धर्ममती ( 13वीं सदी)
मूडबिद्री जैनमठ के ताड़पत्रीय ग्रंथ संख्या 325 में उल्लेख है कि क्षय संवत्सर निज श्रावण कृष्णा 1 शुक्रवार के दिन श्रृंगेरी पुट्टय्य के पुत्र पोमय्य ने 'श्रावकाचार' की एक प्रति कन्नड़ भाषा में लिखकर अर्जिका धर्ममती को प्रदान की थी। इसका लेखनकाल अज्ञात है, तथापि ताड़पत्रीय प्रतिलिपियों का काल लगभग 13वीं सदी तक का है, अतः उक्त प्रति एवं उसे प्राप्त करने वाली आर्यिका का काल 13वीं सदी या उससे पूर्व का होना चाहिये।
4.6.44 ज्ञानमती अव्वै (13वीं सदी)
मूडबिद्री के ही जैन भवन के ताड़पत्रीय ग्रन्थ संख्या 24 में उल्लेख है कि विरोधिकृत, संवत् चैत्र शु. 10 के दिन स्वामी विद्यानन्दी की शिष्या ज्ञानमती अव्वै के लिये मायण्णसेट्टि ने कन्नड़ भाषा में 'अंजनादेवी चरित' की रचना की।
मायण्णसेट्टि जैनधर्म की आस्थावाला उच्चकोटि का कवि था, आर्यिका ज्ञानमती जी ने अपनी तीक्ष्णबुद्धि से उसकी काव्य-प्रतिभा को परखकर उसका उपयोग किया, और जैन साहित्य भंडार को 'अंजनादेवी चरित्र' के रूप में एक अमूल्य कृति भेंट कर अपूर्व योगदान दिया।"
4.6.45 आकलपे अव्वे (वि. संवत् 1324)
अण्णिगेरि (धारवाड़, मैसूर) शक 1189 (सन् 1267) कन्नड़ भाषा में उल्लिखित लेख में 'आकलपे अव्वे' के समाधिमरण का उल्लेख है। यह लेख चैत्र कृ. 4 मंगलवार, प्रभव संवत्सर का है। आकलपे अव्वे को मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय के सोमदेव आचार्य की शिष्या कहा गया है।
साध्वियों तथा सन्यासिनियों को कन्नड़ में 'अव्वै' भी कहा जाता था। जीवक चिन्तामणि में इस शब्द का बार-बार प्रयोग हुआ है। तमिल साहित्य में जो 'अव्वैयार पाडल्हल' (अव्वैयार के पद्य) के नाम से पद्य मिलते हैं, वे साध्वियों की रचना मानी गई है। जैन श्रमणों की भांति जैन श्रमणियाँ भी विहार करती हुई धर्म का प्रचार करती रहती थीं।
4.6.46 ..........य्यिलेकन्ति (14वीं सदी) ___ तगडूर (मैसूर) में 14वीं सदी का कन्नड़ भाषा में एक लेख निसिधि पर है उसमें........यियलेकन्ति के समाधिमरण का उल्लेख है। यह आर्यिका मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय के नागनन्दि भट्टारक के शिष्य नन्दिभट्टारक की शिष्या थी। पाषाण टूटा होने से कुछ अक्षर नष्ट हो गये हैं।
76. कन्नड़ प्रांतीय ताड़ग्रंथ सूची, पृ. 70 77. कन्नड़प्रांतीय ताग्रंथ सूची, पृ. 228 78. अभिलेख-343, जै. शि. सं. भाग 4 79. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 7, पृ. 178 80. अभलेख-417, जै. शि. स., भाग 4, पृ. 296
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