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________________ जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास 1.20.2.5 दक्षिण भारत के अभिलेख दक्षिण के अभिलेखों में श्रवणबेल्गोला के चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख सबसे प्राचीन हैं, इनमें अधिकांश 7वीं 8वीं शताब्दी अथवा इसके पूर्व के है। उस पर बड़े-बड़े आचार्य, मुनियों, आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओं के संलेखना व्रत लेने का उल्लेख है। जैन शिलालेख संग्रह भाग 1-2 में प्रकाशित शिलालेखों में अनेक आर्यिकाओं के नाम हैं, जिन्होंने आत्मकल्याण के साथ समाज सेवा में भी अपना पूर्ण योगदान दिया, उनके द्वारा जैनधर्म एवं संस्कृति का बहुत प्रचार-प्रसार हुआ। उनमें अनन्तामति गंति, कण्णव्बे कन्ति, कनकश्री कन्ति, जम्बुनायगिर, देवश्री कति, धण्णे कुत्तारेवि गुरवि, नागमति गन्ति, पोल्लव्वे कंति, प्रभावती, मानकब्बे गन्ति, राज्ञीमती गन्ति शशिमति गन्ति, श्रीमती गन्ति, कान्तियर, तोमश्री, जाकियब्बे गन्ति आदि प्रमुख हैं।265 दक्षिण के सुन्दर पाण्ड्य से पूर्व मदुरा के पाण्ड्य शासनकाल और उसके पूर्व तथा उत्तरवर्ती काल के अनेक शिलालेखों में साध्वियों के स्वतन्त्र संघ, भट्टारक साध्वियों, पट्टिनी कुरत्तियार (पट्टधर अथवा आचार्या श्रमणी), तिरूमलैकुरत्ती आदि के उल्लेख हैं इनसे ज्ञात होता है कि सुदूर दक्षिण तमिलनाडु में जैनों के सुदृढ़ केन्द्र थे और साध्वियों के ऐसे स्वतंत्र संघ थे जिनकी संचालिकाएँ साध्वियाँ थीं। ऐसे शिलालेख अधिकांशतः आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक के हैं। इन अभिलेखों के अतिरिक्त दक्षिण प्रान्त के सुंदी (धारवाड़) के तथा नेल्लूर जिले में तीतरमाड़ के जैन अभिलेखों में भी आर्यिकाओं विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है। 1.20.3 पुरातात्त्विक स्रोत 1.20.3.1 प्रतिमा भारतीय पुरातत्त्व में सर्वप्राचीन पुरातत्त्व सिंधुदेश के मोहन-जो-दरो एवं पंजाब के हरप्पा नामक ग्रामों के माने गये हैं. पश्चात अशोक द्वारा निर्मित परातत्त्व तथा खंडगिरि, उदयगिरि व मथरा के पुरातत्त्व ई. प. द्वितीय-प्रथम शताब्दी के हैं। इन सभी पुरातत्त्व से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में तीर्थंकर, आचार्य एवं साधुओं की मूर्तियाँ, स्मारक, स्तूप एवं पादुकाओं का विपुलमात्रा में निर्माण होता था, किंतु जैन आर्या-श्रमणियों के मूर्ति शिल्प क्वचित् ही अस्तित्व में है। श्रमणी-प्रतिमा का प्रारंभ कबसे हुआ इसका निश्चित् निर्णय तो नहीं किया जा सकता, किंतु डॉ. सागरमल जी जैन ने ई. सन् प्रथम-द्वितीय शती की मथुरा में उत्कीर्ण साध्वी का चित्रांकन प्रस्तुत किया है, उसके हाथ में पात्र है। एक अन्य चित्र ई. की द्वितीय शताब्दी का है, जिसमें दो साध्वियों की प्रतिमाएँ हैं, बाएँ हाथ में रजोहरण लिये हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि ई. की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में श्रमणियों की प्रतिमाएँ निर्मित होती थी। देवगढ़ जिला ललितपुर (उ.प्र.) में आठवीं-नवीं सदी से 16वीं 17वीं सदी ई. के मध्य अनेक मंदिरों व मूर्तियाँ का निर्माण हुआ, जो मुख्यतः गुर्जर-प्रतिहार एवं चन्देल शासकों का काल रहा है। इनमें भी सर्वाधिक जैन-मंदिर और 265. जैन कला तीर्थ देवगढ़, पृ. 120 60 Jain Education International For Private Penal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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