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________________ पूर्व पीठिका मूर्तियाँ 9वीं से 11वीं शती ई. के मध्य बनीं, जिनमें आर्यिकाओं का भी रूपायन हुआ है। मंदिर संख्या तीन एवं चार के स्तम्भों पर ये उत्कीर्ण की गई हैं।266 __ बंबई से प्रकाशित 'आचार्य वल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ' में आचार्य यशोदेवविजय जी का एक गुजराती लेख 'प्राचीन समय में जैन साध्वियों की प्रतिमाओं' प्रकाशित हुआ है, इसमें उन्होंने वि. सं. 1204 से 1296 तक की जैन साध्वियों की तीन प्रतिमाओं का चित्र सहित पूरा विवेचन दिया है।267 मातर तीर्थ जिला. खेड़ा (गु.) में सुमतिनाथ प्रभु के जिनालय में वि. सं. 1298 की एक प्रतिमा साध्वी पद्मश्री जी की है। आचार्य प्रद्युम्नसूरि जी ने साध्वी जी के अलौकिक व्यक्तित्व का विस्तृत विवरण दिया है।268 साध्वी प्रतिमा की इस परंपरा में दो अन्य प्रतिमाओं का वर्णन 'श्रमण' पत्रिका में महेन्द्रकुमार जैन "मस्त" ने किया है। यह साध्वी प्रतिमा राजगृह (बिहार) के मुख्य श्वेताम्बर मंदिर में मूलनायक के वामवर्ती एक तीर्थंकर प्रतिमा के पद्मासन के नीचे के भाग में सन्निहित है। दूसरी चित्तौड़ किले में महान आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी के समाधि मंदिर में उनकी मूर्ति के मस्तक के पास ही 'महत्तरा साध्वी याकिनी' की दर्शनीय मूर्ति है।269 इसी प्रकार खंभात की एक निषीदिका पर सूरत के भट्टारक विद्यानंदी (प्रथम) की शिष्या आर्यिका जिनमती की संवत् 1544 की मूर्ति है। उस पर रत्नश्री, कल्याणश्री का भी नामोल्लेख है।270 साध्वी-प्रतिमाओं के उक्त साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं कि ईसा की प्रथम द्वितीय सदी में ही यह प्रवृत्ति प्रारंभ हो गई थी, जो 12वीं 13वीं शताब्दी में उत्कर्षता को प्राप्त हुई। साध्वी प्रतिमा का निर्माण, प्रतिष्ठा एवं पूजा की यह परम्परा आज भी कई स्थानों पर देखने को मिलती है। तपागच्छीय परम्परा में जैन भारती महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी की प्रतिमा विजयवल्लभ स्मारक, दिल्ली में सन् 1986 की प्रतिष्ठित सर्वप्रथम साध्वी प्रतिमा है। नाकोड़ा तीर्थ के दक्षिणावर्ती मंदिर में साध्वी सज्जन श्री जी की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दिल्ली के महरौली व जयपुर दादावाड़ी मंदिर में साध्वी रत्न विचक्षणश्री जी महाराज की प्रतिमा है। अन्यत्र भी कई स्थलों पर इस प्रकार की प्रतिमाएँ स्थापित हुई हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की प्रतिमाओं को छोड़कर अन्य किसी आर्यिका की प्रतिमा वर्तमान में देखने को नहीं मिलती। जैन संघ में श्रमणिओं का स्थान द्वितीय क्रमांक पर रखा गया है। श्रमणी-प्रतिमाओं का निर्माण पूज्यता की दृष्टि से करके श्रमण एवं श्रमणी दोनों को समान दर्शाना भी इसका एक हेतु हो सकता है। आचार्य यशोविजय जी ने तो इसे वैधानिक सिद्ध करते हुए स्पष्ट लिखा है - "साध्वी प्रतिमा की प्रतिष्ठा का विधान 15वीं शताब्दी में रचित 'आचार दिनकर' के 13वें अधिकार में सविधि व सविस्तार उल्लिखित मिलता है।''271 266. प्रमुख संपादक मुनि पुण्यविजय जी, पृ. 173 267. पाठशाला, पुस्तक 36, 703 भट्टार मार्ग, सूरत (गु.) जुलाई 2003 268. श्रमण, जुलाई-सितंबर 1997, पृ. 82 269. भट्टारक संप्रदाय, डॉ. वि. जोहरापुरकर, लेखांक 458 270. आ. विजयवल्लभ स्मारक ग्रंथ, पृ. 173 271. विश्वप्रसिद्ध जैन तीर्थ, महो. ललितसागर, कलकत्ता ई. 1995-96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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