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जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास 1.20.3.2 सती. राजुल की गुफा
पुरातात्त्विक स्रोत में श्रमणी की गुफा का एकमात्र संदर्भ गिरनार में देखने को मिलता है, वहाँ की पावन स्थली में नेमि राजुल की प्रेम, विरह, वैराग्य, कैवल्य और निर्वाण की अत्यंत लोमहर्षक गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। राजीमती जो किसी वक्त नेमिनाथ की पत्नी होने वाली थी, अरिष्टनेमि के साध्वी-संघ में प्रविष्ट होकर उनसे पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुई। उसीकी स्मृति में वहाँ 'सती राजुल की गुफा' का निर्माण हुआ है। उसमें लगभग 13वीं सदी की राजुल की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। राजुल की गुफा के अलावा किसी श्रमणी के नाम से या श्रमणी के लिये भारत या भारत से बाहर कोई गुफा बनी हो, यह उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ।272
1.20.3.3 चरण-पादुका या चरणचिह्य
पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिये चरण पादुका इतिहास की प्रामाणिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। श्रद्धेय पुरूषों की चरण-पादुका या चरण-चिह्म बनाकर पूजने की परंपरा जैनधर्म में प्राचीन काल से चली आ रही है। पाश्चात्य विद्वान् सर मोन्योर विलियम ने तो 'बुद्धिज्म' नामक पुस्तक में यहाँ तक अपना अभिमत प्रकट किया है कि जैन लोग ही सर्वप्रथम चरण-चिरों की पूजा के आविष्कारक हैं। श्रद्धालु भक्त चरण-पादुका के समक्ष मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं, प्रणाम के पश्चात् इन चरण-चिह्नों पर रूपया, चांवल एवं अनेक प्रकार के नेवेद्य भेंट करते हैं। भारतीय धर्मों में सर्वप्रथम जैनधर्म में चरण-पादुकाओं की पूजा प्रचलित हुई। प्राचीन तमिल साहित्य की कृतियों में चरण-पादुका की पूजा के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पोन्नूर की पहाड़ियों में आचार्य कुन्दकुन्द के, जिनकांची में वामन मुनि के और श्रवणबेल्गोल में आचार्य भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त की चरण-पादुका बनी हुई है, जिनके प्रति श्रद्धालु भक्त अपनी निस्सीम श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं।
कन्याकुमारी के सागर तट के पास दो पहाड़ियाँ हैं उनमें से एक पहाड़ी परम्परा से लोक में 'श्री पादपारै” के नाम से प्रसिद्ध है। 'श्रीपाद' का अर्थ है-पवित्र चरण, और 'पारै' का अर्थ है पहाड़ी। इस पहाड़ी पर किसी महामानव के चरण-चिन्ह उट्टङ्कित होने से इस संपूर्ण पहाड़ी को 'श्रीपादपारै' कहने लगे। इस भूरे रंग के चरण-चिह्म को विद्वानों ने जैन तीर्थंकर का चरण-चिह्म सिद्ध किया है।274 चरण-चिह्म स्थापित करने का उद्देश्य उन-उन तीर्थंकरों, आचार्यों एवं साधु-साध्वियों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं आस्था को व्यक्त करना है, जिनके कि वे चरण चिन्ह हैं। अपने आराध्य के चरण-चिन्हों को नमस्कार कर भक्त-जन उनकी स्मृति को अपने हृदय में अमिट बनाते हैं।
चरण-पादुकाओं की स्थापना एवं पूजा का प्रारंभ कबसे आरंभ हुआ, इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता, तथापि जैन वाड्.मय के अध्ययन एवं अनुशीलन से यह निर्णायक निष्कर्ष निकलता है कि जैनधर्म की चैत्यवासी 272. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 3, पृ. 224 273. वही, भाग 3 पृ. 223 274. जैनधर्म में यापनीय संप्रदाय, अध्याय चतुर्थ
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