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तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ
से 12 तक की लड़ी की, 17 उपवास, धर्मचक्र, तीर्थंकर की लड़ियां (300 उपवास) आदि किये। आपकी स्मरणशक्ति व धारणा शक्ति तेज थी, प्रतिदिन एक हजार गाथाओं का स्वाध्याय करतीं। पड़िहारा ग्राम में 15 वर्षों तक स्थिरवास रहीं। 95 वर्ष की दीर्घतर आयु में 65 वर्ष तक धर्मसंघ की सेवा की। आपकी स्मृति में 'साध्वी श्री सोनांजी' नामक लघु पुस्तक प्रकाशित है। 7.9.12 श्री सुन्दरजी 'रीणी' (सं. 1963-2018) 7/83 ___आप 'नोहर' के श्री कुशलचंदजी नखत की सुपुत्री थीं, रीणी निवासी श्री सुगनचंदजी सुराणा के साथ आपका विवाह हुआ। 17 वर्ष की वय में ही दाम्पत्य जीवन पर उल्कापात हुआ, तो आप संयमी जीवन में प्रवेश करने के लिये श्री डालगणी द्वारा कार्तिक शुक्ला 15 को सरदारशहर में दीक्षित हुईं। संवत् 1981 में आप अग्रगण्या बनीं, आपके उद्बोधन की शैली से अनेक भाई-बहन अणुव्रती बने, 1800 भाई-बहनों ने गुरु-धारणा की, 25 भाई 9 बहनों को अनशन कराया, 300 बारह व्रतधारी बनाये। आपके प्रेरक प्रसंग व संस्मरण शासन-समुद्र में हैं। 23 दिन के अनशन से भीनासर में आप स्वर्गस्थ हुईं। आपके उपवास से नौ दिन के लड़ीबद्ध तप में कुल 1459 दिन होते हैं।
7.9.13 श्री पारवतांजी "मोमासर' (सं. 1963-2012) 7/90
श्री पारवतांजी श्री चांदमलजी लूणिया 'रीणी' वालों की पुत्री व छोगमलजी कुहाड़ की पत्नी थीं। पतिवियोग के पश्चात् ये आषाढ़ शुक्ला 7 को बीदासर में दीक्षित हो गईं। आपने 7 वर्ष तक एकान्तर उपवास किये। इसके अलावा उपवास 2024, बेले 480, तेले 180, चोले 97, पांच 46, छह 7, सात 6, आठ 11, नौ 2, दस 3, ग्यारह 2, बारह 1, तेरह 3 तथा 14, 15, 17, 19 का तप एकबार इस प्रकार कुल 12 वर्ष और 6 मास तपस्या की। लाडनूं में आप दिवंगत हुईं।
7.9.14 श्री खूमांजी 'लाडनूं' (सं. 1964-2036) 7/100
आप लाडनूं के हरखचंदजी दुगड़ की सुपुत्री थीं, 12 वर्ष की वय में श्री हनूतमलजी बेगवानी के साथ विवाह हुआ, किंतु मन-मानस में छिपी वैराग्य तरंगे जब घनीभूत होने लगी तो आपने बड़ी सूझ-बूझ से पति से दीक्षा-स्वीकृति पत्र लिखवा लिया। आषाढ़ शु. 7 को खूमांजी ने पति एवं विपुल संपत्ति का त्यागकर लाडनूं में दीक्षा ले ली। आपने 'भगवती सूत्र' 'भगवतीसूत्र की जोड़', कई आगम तथा आख्यान लिपिबद्ध किये। बीदासर में आचार्य तुलसी को आपने हस्तलिखित तेरह आगम भेंट किये। अपने संयमी जीवन में कुल 4921 उपवास, 95 बेले, 36 तेले, 4 चोले 2 पचोले, 2 छह किये, पांच विगय वर्जन और पांच द्रव्य ही भोजन में ग्रहण करती थीं। खाद्य-संयम के साथ पानी-संयम, औषध-संयम, उपधि व स्थान-संयम का भी आप पूरा ध्यान रखती थीं। सं. 1997 से आप अग्रणी बनकर विचरी, और अपने शांत स्वभाव, कोमल व्यवहार, मधुरवाणी से जनमानस में सुन्दर संस्कारों का बीजारोपण किया। आप अंत तक राजलदेसर में स्थिरवासिनी रहीं। आपकी अद्भुत सूझ-बूझ श्रद्धा समर्पण, क्षमा, निस्पृहता, गुणग्राहकता, विनय, उदारता आदि के अनेक संदर्भ जासन-समुद्र में अंकित हैं। श्री फूलकुमारीजी ने भी साध्वी श्री जी की बहुमुखी विजेष्ठाताओं को अभिव्यक्त करने वाली एक पुस्तक लिखी है - 'नींव की ईंट महल की मीनार'
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