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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
पड़ा। उसने अपने श्वसुरकुल और पितृकुल इस प्रकार दोनों ही कुलों से सहर्ष अनुमति प्राप्त की, तत्पश्चात् अपनी तीन अन्य धर्मप्राणा सखियों सहित अत्यंत धूमधाम पूर्वक आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी से दीक्षा- मंत्र लेकर श्रमणी धर्म में दीक्षित हुई। नागोरी लोकागच्छ में आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी की धर्मशिष्या महासती श्री धर्मवती जी महाराज ही आद्या प्रवर्तिनी साध्वी हुई। इस साध्वी मंडल ने वहीं लुधियाना के आसपास 12 कोश के मंडल में विहार किया, अधिक नहीं। आचार्य दीपागरजी स्वामी संवत् 1615 में आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए और 27 वर्ष तक आचार्य पद पर रहे अतः आर्या धर्मवती का समय भी यही सिद्ध होता है । "
6.1.2 आर्या पद्मा (सं. 1690 )
ये आर्या लालबाई की शिष्या आर्या मोहणदे की शिष्या थीं एवं गुजराती लोंकागच्छीय वरसिंहजी की आज्ञानुवर्तिनी थीं। इनकी 'नागलकुमार नागदत्त नो रास' की एक प्रतिलिपि सं. 1690 की महुआ, तिलकविजय भंडार में है ।"
6.1.3 आर्या रतनां (सं. 1690 के लगभग )
ये भी गुजराती लोंकागच्छीय साध्वी आर्या वीजां की शिष्या थी, इन्होंने भी 'नागल कुमार नागदत्त नो रास ' की प्रतिलिपि की थी, जो खेड़ा के ज्ञान भंडार में है । '
6.1.4 आर्या जवणादे (सं. 1697)
आप लोकागच्छीय देवमुनि के शिष्य श्री धर्मसिंहजी की शिष्या थीं। धर्मसिंहजी ने संवत् 1607 में 'मल्लिनाथ स्तवन' की रचना की, उसकी प्रशस्ति में गुरू परम्परा का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा है कि इसकी प्रति आर्या जवणादे के पठनार्थ लिखी गई। आचार्य धर्मसिंहजी ने संवत् 1697 में 'शिवजी आचार्य रास' की रचना सोजत में की, इससे विद्वानों ने उनकी 'मल्लिनाथ स्तवन' की रचना को भी संवत् 1697 की माना है |
6.1.5 आर्या लोहागदेजी, सदाजी (सं. 1749 )
लोंकागच्छीय इन दोनों साध्वियों का उल्लेख संवत् 1749 को बीकानेर में लिखित 'सुबाहु चोढालियुं' की प्रतिलिपिकर्त्ता के रूप में है, यह कृति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर नं. 2839 में संग्रहित है। "
5. श्री उमेशमुनि 'अणु', प्रमुख संपादक पंडितरत्न श्री प्रेममुनि स्मृति ग्रंथ, पृ. 214-17
6. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 123
7. वही, भाग 2, पृ. 123
8. हिं. जै. सा. इ., भाग 2, पृ. 249
9. वही भाग 5, पृ. 75
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