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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6 (ख) स्थानकवासी नामकरण लोकाशाह द्वारा किये गये धर्मोद्धार के विशुद्ध स्वरूप का सर्वप्रथम नाम 'जिनमती' था, किंतु लोकाशाह के अनन्य उपकार की स्मृति में उनके अनुयायियों ने अपने गच्छ को 'लोंकागच्छ' के नाम से प्रचारित किया था। 18वीं सदी के प्रारंभ में महान प्रभावशाली क्रियोद्धारक आचार्य धर्मदासजी ने अपने 99 शिष्यों को जब 22 भागों में विभक्त कर पृथक्-पृथक् प्रांतों में धर्मप्रचार हेतु भेजा, तब से यह संघ 'बाईसटोला' या 'बाईसपंथी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ये संत कठोर आचार-विचार का पालन करते हुए साधु के लिये निर्मित उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे। निर्दोष स्थान की अन्वेषणा को प्रमुखता देने के कारण लोगों ने 'स्थानकवासी' नाम प्रदान कर दिया, आज यही नाम इस परम्परा के लिये सर्वप्रसिद्धि प्राप्त है। यद्यपि कहीं-कहीं इस परम्परा को 'ढूंढिये' नाम से भी संबोधित किया जाता है उसका अर्थ ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय के खोजी, आत्म-मंदिर में परमात्मा की खोज करने वाले तथा निर्दोष आहार-पानी एवं स्थान की खोज करने वाले के रूप में किया जाता है। 6. (ग) स्थानकवासी श्रमणियाँ लोंकागच्छ की स्थापना के पूर्व श्रमणियों को धर्मसंघ में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी, तत्कालीन मुस्लिम शासकों की पर्दा प्रथा एवं अन्य सामाजिक तथा राजनैतिक कारणों से श्रमणियों को महावीर काल में प्राप्त कई अधिकार लुप्तप्रायः हो गये थे। उन्हें शास्त्र पढ़ना, प्रायश्चित् देना, व्याख्यान देना, धर्मचर्चा करना, पठन-पाठन करना, पाट पर बैठना आदि अनेक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, गुरू आडम्बर ने श्रमणियों का स्वतन्त्र अस्तित्व ही नष्ट कर दिया था। लोकाशाह ने इन धर्म विरूद्ध परम्पराओं का भी विरोध किया, उनकी धर्मक्रांति के फलस्वरूप श्रमणियों को कई अधिकार पुनः प्राप्त हुए, फलस्वरूप अनेक महिलाएं इस आडम्बर विहीन त्यागमार्ग की ओर अग्रसर हुई। लोंकाशाह की मौलिक क्रांति एवं सामयिक जागरण में जिन महिलाओं ने सहयोग दिया उनमें श्री सोभाजी, गोधाजी, तथा इन्द्राजी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, इन्होंने ज्ञानमुनिजी की परम्परा की साध्वी श्री चरण महासतीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। इनके अतिरिक्त संघपति श्री शम्भूजी की बाल विधवा पौत्री श्री मोहाबाई का भी उल्लेख आता है। जैन इतिहास में श्रमणियों की परम्परा श्रमणों के कारण ही अस्तित्व में आई है, अतः अग्रिम पृष्ठों पर लोंकागच्छ एवं उसके पश्चाद्वर्ती छः महापुरूषों की परंपरा जो आज स्थानकवासी परम्परा के रूप में प्रसिद्ध है, उनकी श्रमणियों का उल्लेख संक्षिप्त रूप में कर रहे हैं। 6.1 लोंकागच्छीय श्रमणियाँ 6.1.1 प्रवर्तिनी श्री धर्मवतीजी (सं. 1615 से 1642 के मध्य) नागोरी लोकागच्छ के तृतीय आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी अत्यंत प्रभावशाली आचार्य थे, उनके ओजस्वी प्रवचनों का प्रभाव लुधियाना (पंजाब) के कोट्याधीश शाह श्रीचन्द्रजी ओसवाल की विवाहिता पुत्री धर्मवती पर 3. स्थानकवासी जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 142 4. श्रमणसंघ ज्योति, नवंबर 2003 में आचार्य देवेन्द्रमुनिजी का लेख 530 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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