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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पाषाण-शिलाओं, स्तम्भों, प्रस्तर- पट्टियों, भवनों, दीवारों, पत्थर एवं धातु की मूर्तियों ताम्रपत्रों, मंदिर के भागों एवं स्तूप आदि स्थानों पर उत्कीर्ण किये जाते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि एकबार उत्कीर्ण किये जाने के बाद उन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता। शताब्दियों तक संपादन और पुनर्लेखन से गुजरती हुई साहित्यिक सामग्री में प्रायः जिस तरह के अंश प्रक्षिप्त या परिवर्तित कर दिये जाते हैं, वैसा अभिलेखों में नहीं हो सकता, साहित्यिक स्रोतों में भी प्रदत्त तथ्यों की पुष्टि यदि अभिलेखों से होती है, तो वे तथ्य प्रामाणिक माने जाते हैं। ये संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी और मिश्रित भाषाओं में पाये जाते हैं। प्रायः छठी शताब्दी तक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में, सातवीं से नौवीं शताब्दी तक के कुटिल लिपि में और उसके बाद के देवनागरी लिपि में मिलते हैं। 259 1.20.2.1 खारवेल के अभिलेख ऐतिहासिक घटनाओं और जीवन चरित को अंकित करने वाला भारत का सबसे प्रथम शिलालेख एवं जैन शिलालेखो में सबसे प्राचीन शिलालेख कलिंगाधिपति खारवेल का ई. पू. 170 का माना जाता है 1200 ई. पू. द्वितीय शताब्दी का यह शिलोलेख 'हाथीगुफा के शिलालेख' के नाम से प्रसिद्ध है इसकी भाषा अपभ्रंश प्राकृत है। शिलालेख की प्रथम पंक्ति जैन रीति के अनुसार अर्हत और सिद्धों के नमस्कार से प्रारंभ होती है अतः यह 'जैन शिलालेख' भी कहा जा सकता है। इसमें सम्राट् खारवेल ने अपने राज्यकाल की घटनाओं को 17 पंक्तियों में उत्कीर्ण किया है। यह संपूर्ण लेख ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। खारवेल के शिलालेख में श्रमणियों के बारे कोई उल्लेख नहीं है, किंतु हिमवन्त स्थविरावली से यह सूचित होता है कि खारवेल श्रमणोपासक था। उसने कलिंग के कुमारी पर्वत पर जैन श्रमण संघ का सम्मेलन करवाया था उसमें आर्या पोइणी तीनसौ श्रमणियों के साथ सम्मिलित हुई थी । कुमारीपर्वत पर ही महावीर की वाग्दत्ता (दिगंबर- परम्परा विवाह नहीं मानती) राजकुमारी यशोदा ने तपस्या की थी इस पर्वत का 'कुमारीपर्वत' नाम तभी से प्रसिद्ध हुआ | 201 1.20.2.2 मथुरा के अभिलेख ( ई. पू. प्रथम शताब्दी से ई. पाँचवीं शताब्दी) खारवेल के शिलालेखों के पश्चात् मथुरा के जैन शिलालेख कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। खारवेल का शिलालेख जहाँ राजा खारवेल के राज्य शासन में घटित महत्त्वपूर्ण घटनाओं की ओर इंगित करता है, वहाँ मथुरा के जैन अभिलेख सीधे तत्कालीन जैन धर्म के इतिहास एवं संस्कृति का दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं। मथुरा के शिलालेखों में एक अन्य विशेषता और भी देखने को मिलती है कि यहाँ पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों के उल्लेख अधिक हैं, ये स्त्रियाँ आर्याओं के उपदेश से प्रेरित होकर धर्मकार्यों में प्रवृत्त हुईं और उदार हृदय से मूर्तियाँ, स्तूप आदि बनवाने में आगे रहीं। अभिलेखों में दानदात्री महिलाओं ने अपने एवं अपने परिवार वालों के नामों के साथ अपनी उपदेशिका पूज्या आर्याओं के नामों को भी उनके गण, कुल या शाखा के साथ अंकित किया है। मथुरा के अभिलेख दो हजार वर्ष पूर्व की श्रमणियों का अस्तित्व एवं उनकी महान् प्रवृत्तियों की एक प्रामाणिक व विश्वसनीय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। 259. डॉ. श्रीमती राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ. 2 260. चि. जै. शाह, उत्तर भारत में जैनधर्म, पृ. 152 261. विजयमती माताजी का लेख 'आर्यिकाओं का योगदान', दृष्टव्य-आ. इंदु, अभि. ग्रं., खंड 4 पृ. 3 Jain Education International 58 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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