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पूर्व पीठिका
आचार्यों के पास भेजे गये विज्ञप्ति-पत्रों में सुंदर चित्रकारी के साथ-साथ श्रमण- श्रमणियों के चित्र भी अंकित होते हैं, जो काल्पनिक अधिक लगते हैं। लेकिन इससे श्रमणियों का स्वरूप व उनकी तत्कालीन स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। श्रमणियों को एवं संघों को प्रेषित दो विज्ञप्ति-पत्रों का विवरण श्री हीरालाल दुगड़ ने अपनी पुस्तक 'मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म' में प्रकाशित किया है, जिसमें यति-यतिनियों को धर्म प्रचारार्थ क्षेत्र संभालने का जिक्र किया गया है। 257 किंतु ये विज्ञप्ति - पत्र आदेश - पत्र के रूप में हैं, विनंती के रूप में नहीं। तथापि इन विज्ञप्ति - पत्रों के माध्यम से श्रमणियों का संघ में गरिमामय स्थान था, यह झलक अवश्य मिलती है।
1.20.1.8 सचित्र हस्तलेख
बीकानेर, जयपुर, जैसलमेर, पाटण आदि के जैन ग्रंथ-भंडारों में कई सचित्र हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहित हैं। ये चित्र जैनियों की कला अभिरूचि एवं उनकी परिष्कृत कला - ज्ञान का दिग्दर्शन कराते हैं। निर्माण-तिथि अंकित होने से ये सचित्र ग्रंथ जैन चित्रकला एवं प्रकारान्तर से भारतीय चित्रकला का इतिहास उद्घाटित करते हैं। लगभग 800 वर्ष प्राचीन श्रमणियों के सचित्र - पत्र का नाहटा जी ने उल्लेख किया है। 258 जो उनके कला भवन में संग्रहित है। इससे जैन चित्रों की प्राचीनता के साथ ही साथ जैन श्रमणियों द्वारा चित्रित चित्रकला का इतिहास विक्रम की 12वीं सदी तक का सिद्ध हो जाता है । उपलब्ध चित्र से यह अनुमान भी सहज ही लगता है कि इससे पूर्व भी जैन श्रमणियाँ हस्तलिखित पत्रों पर अपनी चित्रकला का प्रदर्शन करती होंगी।
1.20.1.9 समकालीन इतिहास- ग्रंथ
पट्टावलियों, ग्रंथ-प्रशस्तियों एवं विज्ञप्ति-पत्रों के अतिरिक्त वंशावलियाँ, रास, ढालें, चौपाइयाँ, सिलोकों आदि अपभ्रंश तथा गुजराती हिंदी भाषा का साहित्य भी श्रमणियों के इतिहास को जानने के साधन है। गच्छ भेद के पश्चात् की श्रमणियों के वृत्तान्त इतिहास- ग्रंथों में विशद रूप से प्राप्त होते हैं। दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों की जानकारी के लिये 'चंदाबाई अभिनन्दन ग्रंथ', 'आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ', 'दिगंबर जैन साधु', 'भट्टारक', 'संप्रदाय' आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय के प्राचीन अर्वाचीन इतिहास की सामग्री महोपाध्याय विनयसागर एवं नाहटा जी द्वारा संग्रहित 'खरतरगच्छ का इतिहास', 'खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची', नंदलाल देवलुक् का 'जिनशासन नां श्रमणी रत्नों', मुनि ज्ञानसुंदरजी का " भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास" आदि उपयोगी ग्रंथ हैं। सुमनमुनि जी महाराज का 'पंजाब श्रमणसंघ गौरव', मोतीऋषि जी महाराज का 'ऋषि संप्रदाय का इतिहास', उमेशमुनि 'अणु' का 'धर्मदास' और उनकी मालव शिष्य परंपरा', मुनि धर्मेश द्वारा लिखित " साधुमार्गी की पावन सरिता ", इन्दौर से प्रकाशित "गोंडल गच्छ दर्शन" 'अजरामर विरासत' एवं अनेक अभिनंदन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ आदि में स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियों के संदर्भ प्राप्त होते हैं। तेरापंथ-संघ का व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध इतिहास मुनि नवरत्नमलजी ने कई भागों में 'शासन - समुद्र' नाम से प्रकाशित करवाया है।
1.20.2 अभिलेखीय स्रोत
अतीत को जानने का सर्वाधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय साधन उस काल के अभिलेख हैं। ये अभिलेख
257. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 343-44
258. भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 126
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