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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में रहने लगीं। सुसराल वालों को पता लगने पर उन्होंने सब को जलाकर मारने की धमकी दी। समाज की अनिष्टता व हिंसक वातावरण का विचार कर मथुरादेवीजी घर पर आ गई। वहाँ पर भी सुसराल वालों ने मारणान्तिक कष्ट दिये। अंततः संकल्पविजेता मथुराजी ने कांधले में पूज्य सोहनलाल जी महाराज के मुखारविन्द से मार्गशीर्ष कृष्णा 7 वि. सं. 1960 को दीक्षा अंगीकार की, ये श्री गंगीजी म. की शिष्या बनीं। श्री कांशीरामजी महाराज एवं नरपतरायजी महाराज की भी दीक्षा इनके साथ ही हुई थी।
ये परम धर्म प्रभाविका साध्वी थीं। वि. सं. 1996 में पटियाला का एक मुसलमान परिवार आपका परम भक्त बन गया। वह सामायिक आदि साधना भी करता था। भारत-पाक विभाजन के समय पटियाला के राजा ने जब सभी मुसलमानों को मारने अथवा निकल जाने का हुक्म दिया, तो उसे सामयिक में बैठा देखकर सरकार ने उसकी रक्षा ही नहीं की. वरन सरक्षित लाहौर पहचाया। आपके सदपदेशों से एवं उच्च चरित्र से कइयों के जीवन में धर्म की ज्योति जागृत हुई, कितनों ने ही मांस, मदिरा आदि का त्याग किया। एक स्त्री, धर्म भ्रष्ट होकर वैश्यावृति में लग गई थी, उसे आपने सदाचरण का ऐसा मार्मिक उपदेश दिया कि वह वैश्यावृति छोड़कर बारह व्रतधारी श्राविका बन गई। इसी प्रकार एक गौ हत्यारा जो प्रतिदिन गौवध करता था और गोवध के अपराध में कई बार सजा भुगत चुका था, तथापि उसने गौवध बंद नहीं किया। उसके मन में दया का भाव जगाकर उसे पूर्ण अहिंसक श्रावक बना दिया। आप स्वयं भी अत्यन्त निस्पृह और सेवाभावी साधिका थी। एकबार अपनी गुरणी जी गंगीजी के बीमार हो जाने पर उन्हें समाना से पटियाला तक पीठ पर बिठाकर चलीं। रोहतक में श्री नियादरी देवी जी और परमेश्वरीदेवीजी की भी आपने निस्वार्थ भाव से सेवा की थी। आप स्वाध्यायप्रेमी भी उतनी ही थी। रात्रि को निद्रा के कारण स्वाध्याय में बाधा पड़ती देख अपना आसन कंकरों पर बिछाकर बैठ जाती एवं निद्रा जीतने का प्रयत्न करती थीं। आप इतनी सहनशील थीं कि साढ़े सात वर्षों तक आंखों की दुस्सह वेदना सहन की, अन्ततः वेदना की तीव्रता देख दोनों आंखों को बैठे-बैठे डॉक्टर से निकलवा लिया, उस समय आपके मुंह से 'आह' भी नहीं निकली। वि. सं. 2002 में यह महान साध्वी स्वर्गवासिनी हो गई। इनकी छह शिष्याएँ हुईं- श्री रत्नदेवीजी, रूक्मिणीजी, सत्यवतीजी, मगनश्रीजी, सुन्दरीजी, राजमतीजी।।25
6.3.2.30 श्री सोमादेवीजी (सं. 1962)
आपका जन्म अमृतसर निवासी लाला ईश्वरदासजी ओसवाल के यहां तथा विवाह स्यालकोट के लाला पन्नाशाह के साथ हुआ, किंतु बाल्यवय में ही आप विधवा हो गई। सं. 1962 में आप द्रौपदाजी की शिष्या बनीं, आपके पिताजी भी आचार्य सोहनलालजी महाराज के पौत्र शिष्य बनें। आप अत्यन्त वैराग्यशीला, त्यागी एवं तपस्विनी महासती थीं।126
6.3.2.31 श्री धनदेवीजी (1967-2016)
श्री धनदेवीजी महाराज का जन्म अमृतसर के सुश्रावक लाला पिशोरीलालजी जैन एवं श्रीमती प्रेमवतीजी के यहां संवत् 1947 फाल्गुन सुदी अष्टमी के दिन हुआ। जब आप मात्र नौ वर्ष की थीं तभी आपका विवाह
125. श्री सुंदरीदेवीजी, संयम सुरभि, पृ. 120, दिल्ली , ई. 2003 126. श्री द्रौपदांजी महाराज का जीवन चरित्र, पृ. 104
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