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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संवत् 2001 को खाचरोद में दीक्षा ग्रहण की। आप अत्यंत उच्चकोटि की शास्त्रज्ञा, विनयवान और अप्रमत्त संयमी थीं। अंतिम समय 21 दिन का उपवास और 37 दिन संथारा कुल 58 दिन अनशन के साथ बदनावर (म. प्र. ) मृ. शु. 13 को समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आप आचार्य उमेशमुनिजी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं, आपकी रेवतीजी आदि कई शिष्याएँ हैं। 360
6.5.8.52. श्री गेंदकुंवरजी (सं. 2003-2027 )
आप ब्यावरा के निकट छापीहेड़ा के निवासी श्री रतनलालजी की पुत्री थीं, आपका विवाह आगर निवासी पुरालालजी बालवेचा से हुआ, आपके दो पुत्र और एक पुत्री हुई। पतिवियोग के पश्चात् आपने बड़े पुत्र को सं. 1996 में दीक्षा दिलाई, तत्पश्चात् स्वयं, चाँदबाई (बहिन की पुत्री) और कमलाबाई (पुत्री) तीनों ने कतवारा ग्राम में सं. 2003 वैशाख शुक्ला 11 को दीक्षा अंगीकार की। आपके दोनों पुत्र श्री सुरेन्द्रमुनि श्री रूपेन्द्रमुनि के नाम से तथा पुत्रियाँ चाँदकंवरजी और कमलाकुंवरजी के नाम से प्रख्यात है। सं. 2027 इन्दौर में संथारे के साथ आप स्वर्गवासिनी हुईं | 361
6.5.8.52. मालवा शाजापुर शाखा की अन्य श्रमणियाँ :
आचार्य धर्मदासजी महाराज की मालवा - परम्परा की एक शाखा जो मुनिश्री गंगारामजी की परम्परा है वह शाजापुर शाखा के नाम से जानी जाती है, पूज्य गंगारामजी के शिष्य श्री ज्ञानचन्द्रजी महाराज के आठवें शिष्य मुनि श्री मगनलालजी मारवाड़ में विचरण करने लगे अतः उनका संघ 'ज्ञानगच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 302 ज्ञानगच्छ परम्परा के विशिष्ट बहुश्रुत संत मुनि समरथमलजी, श्री चम्पालालजी महाराज हुए, वर्तमान में श्री प्रकाशचन्दजी म., आदि आगमज्ञ व क्रियानिष्ठ संत हैं। इनकी मूल श्रमणियाँ कौनसी थीं, यह ज्ञात नहीं हुआ, ऐसा उल्लेख है कि महासती श्री नन्दकंवरजी एवं उनकी साध्वियाँ जड़ावकुंवरजी, श्री गुलाबकुंवरजी आदि पहले साधुमार्गी परम्परा में थीं, किंतु श्री समर्थमलजी म. के बहुत समय तक खींचन में रहने तथा अध्ययन अध्यापन की निकटता के कारण साध्वियों की आस्था उनमें हो गई, संवत् 2025 में आचार्य श्री नानेश के शासन काल में विचार भेद के कारण जब पंडित समर्थमलजी महाराज से संबंध विच्छेद हुआ तो यह साध्वी मंडल भी उनके साथ ही पूर्ण रूप से जुड़ गया जो आज भी उन्हीं की आज्ञा में विचरण कर रहा है। 363
6.5.8.53. महासती श्री नन्दकंवरजी (सं. 1910 के पश्चात् 35 )
आपका जन्म बीकानेर निवासी पन्नालालजी पूंगलिया की धर्मपत्नी मैनाबाई की कुक्षि से हुआ। बीकानेर के ही गंभीरमलजी सुराणा के साथ आपका विवाह हुआ, एकबार हरे चने में कई लटें देखकर आपका मन अनुकंपा से भर गया, और आगे से हरे चने का शाक स्वयं न खाने की प्रतिज्ञा की व पति को भी हरे चने न खाने का अनुनय किया। गंभीरमलजी ने व्यंग्य करते हुए कहा- साध्वी बनकर उपदेश दो तो असर पड़े। यह वचन नंदकंवर
360. जैन प्रकाश, दिसंबर 2005, पृ. 46
361. वही, पृ. 220
362. स्था. जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 402
363. साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 339
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