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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
6.7.153 आर्या मानकुंवर (सं. 1899 )
प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर में उपलब्ध पाण्डुलिपि 'नमिपवज्जा' के अंत में आर्या मोताजी उनकी शिष्या उमाजी पेमाजी की शिष्या मानकुंवरजी और फूलकुंवरजी का उल्लेख है। यह प्रतिलिपि सं. 1899 आश्विन शु. 12 रविवार को लिखी गई अंत में, यह पत्र श्री मानकुंवरजी की नेश्राय में है, ऐसा उल्लेख है ।
6.7.154 आर्या लाभु (सं. 1899 )
सं. 1899 ज्येष्ठ कृ. अमावस्या शुक्रवार को महासती हरूजी की शिष्या पेमाजी उनकी शिष्या अजबांजी उनकी शिष्या अमरूजी उनकी शिष्या लाभ के द्वारा 'उत्तराध्ययन सूत्र' की प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। लिपि सुंदर है, आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में उपलब्ध है।
6.7.155 साध्वी जसोदाजी (19वीं सदी)
श्री जसोदाजी महान तपस्विनी साध्वी थीं अंत समय में आचार्य श्री के द्वारा संथारा व्रत अंगीकार कर समाधिमरण को प्राप्त हुईं। इनकी स्तुति में मुनि ठाकुर ने 7 कड़ी की पद्य रचना की है। पत्र में लेखन वर्ष का उल्लेख नहीं है, किंतु भाषा व लिपी से पत्र 19वीं सदी का प्रतीत होता है । एक साध्वी का गीत साधु के द्वारा लिखा जाना उसके संयम व तपोनिष्ठ जीवन का सूचित करता है । गीत अंत में साधु की श्रद्धा रूप एक कड़ी इस प्रकार है- 'करजोड़ी मुनि ठाकुर गुण गावई, मनवांछित सुख सघला पावई ॥ 7 ॥29
6.7.156 आर्या रामा ( 19वीं सदी)
इन्होंने मरूगुर्जर भाषा की 'अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र सस्तबक' को 18वीं सदी में सांगानेर में पांडुलिपि की । प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1393) में है।
6.7.157 आर्या केसरजी ( 19वीं सदी)
आर्या केसरजी ने 'प्रकीर्णक बोल' की 19वीं सदी में पांडुलिपि की। बी. एल. इन्स्टी. दि. में (परि. 9490) संग्रहित है। आर्या केसरजी की पांडुलिपि का 'स्फुट सवैया' भी 19वीं सदी का प्राप्त है। प्रति चित्तोड़ संग्रह में है 1530 6.7.158 आर्या लटको ( 19वीं सदी)
मालमुनि रचित 'करणी स्वाध्याय' की प्रतिलिपि में आर्या जटो की शिष्या लटको का लिपिकार के रूप में उल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7953 ) में है।
6.7.159 आर्या रत्ना (19वीं सदी)
गुणसागर कृत 'राजेश्वर स्वाध्याय' की प्रतिलिपिकर्त्री में 'आर्या रत्ना का नामोल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7547) में है।
529. 'साध्वी जसोदाजी गीत', मुनि श्री भुवनचंद्रजी म., दुर्गापुर कच्छ से प्राप्त प्रकीर्णक पत्र के आधार पर 530. रा. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 8 क्र. 177 ग्रं 4382
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