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अध्याय 5
श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ
जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा अपने अस्तित्वकाल से ही विस्तृत, समृद्ध एवं परिष्कृत परम्परा रही है। इस परम्परा के आचार्यों ने अपने उदार एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण से जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के विविध कार्य किये। कल्पसूत्र एवं नंदीसूत्र में श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों की प्राचीनतम पट्टावलियाँ प्राप्त होती हैं, इन पट्टावलियों तथा मथुरा के अभिलेखों से उपलब्ध प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री से यह परिज्ञात होता है कि वी. नि. 1 से 1000 तक के इतिहास में आचार्यों की अखंड विशुद्ध परम्परा एक महानदी के प्रवाह के रूप में अबाध गति से चलती रही। आचार्य देवर्द्धिगणी के स्वर्गवास के पश्चात् उत्तरवर्ती काल में चैत्यवासी संघ का शनै- शनै: जोर बढ़ने लगा, चैत्यवासी संघ सशक्त, सुदृढ़ देशव्यापी और बहुजनमान्य बन गया और विशुद्ध श्रमणाचार की पोषक मूल परम्परा स्वल्पतोया नदी के समान क्षीण हो गई। चैत्यवासी परंपरा का वर्चस्व वी. नि. 11वीं से 16 शताब्दी के प्रथमार्द्ध तक बना रहा। उस समय बीज रूप में विद्यमान विशुद्ध श्रमण परंपरा के वनवासी आचार्य उद्योतनसूरि के पास आचार्य वर्द्धमानसूरि ने अभिनव धर्म-क्रांति का सूत्रपात कर लगभग 500 वर्षों से अंधकार की ओर अग्रसर जैन संघ को प्रकाश की ओर मोड़ दिया। विक्रम की 11वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के अंत तक चैत्यवासी परंपरा के साथ इस परंपरा का संघर्ष चलता रहा। वस्तुतः यह सर्वप्रथम क्रियोद्धार था, उसके पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन आचार्यों ने गुजरात, राजस्थान, मालवा आदि प्रदेशों में अप्रतिहत विहार कर जन-जन के समक्ष धर्म और श्रमणाचार के आगमिक स्वरूप को प्रस्तुत कर चैत्यवासी परम्परा का न केवल वर्चस्व समाप्त किया अपितु उसके अस्तित्व तक को समाप्त कर दिया। इस प्रकार श्री वर्द्धमानसूरि ने शिथिलाचार के दलदल में धंसे धर्मरथ का उद्धार कर विशुद्ध स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित करने का जो साहस दिखाया उसके लिये जैन संघ सहस्राब्दियों तक उनका ऋणि रहेगा। यही परम्परा आगे चलकर 'खरतरगच्छ' के नाम से विख्यात हुई।' श्री वर्द्धमानसूरि के क्रियोद्धार का सुखद परिणाम यह हुआ कि न केवल साधु-साध्वी अपितु जनमानस में भी जैनधर्म के विशुद्ध स्वरूप को समझने की प्रबल जिज्ञासा तरंगित हो उठी थी, अतः जब-जब भी जैन संघ में धर्म के नाम पर बाह्याडम्बर का प्रभाव बढ़ा, तब-तब आत्मार्थी संतों ने उसे सही राह पर लाने का प्रयत्न किया। वी. नि. की 16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के पश्चात् समय-समय पर क्रियोद्धार की एक श्रृंखला सी चल पड़ी, और उसमें से क्रिया या मान्यता भेद को लेकर श्वेताम्बर परम्परा गच्छों की एक बाढ़ सी आ
1. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 4 पृ. 104
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