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________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 'तपा' विरूद प्रदान किया। आगे चलकर इनकी शिष्य संतति 'तपागच्छीय' कहलाई। 222 तपागच्छ पट्टावली, (श्री मुनिसुंदरसूरिकृत) गुर्वावली तथा जीर्ण पट्टावली आदि में तपागच्छ की किसी भी साध्वी का नामोल्लेख देखने को नहीं मिला। यद्यपि प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों व उनमें उल्लिखित प्रशस्तियों मे श्रमणी विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हो सकती है, किंतु इसके लिये ग्रंथ भंडारों से पर्याप्त विवरण प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। जो थोड़ी-बहुत जानकारी हमें उपलब्ध हुई है वह मूर्ति, प्रतिमा लेख, प्रशस्तियों के द्वारा प्राप्त हुई है, उसीके आधार पर यहाँ तपागच्छ की प्राचीन साध्वियों का इतिवृत्त दिया गया है। 5.2.1 प्रवर्तिनी साध्वी पाहिनी ( संवत् 1207 ) आप कलिकाल सर्वज्ञ के नाम से जैन साहित्याकाश में विख्यात, साढ़े तीन करोड़ श्लोक परिमाण ग्रन्थ के कर्त्ता राजा कुमारपाल के गुरू आचार्य हेमचन्द्र की मातेश्वरी थीं। आचार्य हेमचन्द्र (गृहस्थ नाम चांग) को चन्द्रगच्छ की शाखा के आचार्य देवचन्द्रसूरि के पास दीक्षित करने के पश्चात् माता पाहिनी ने भी दीक्षा आंगीकार करली थी। आचार्यश्री ने आपको 'प्रवर्तिनी' पद से विभूषित किया था। 23 वि. संवत् 1207 को पाटन में आपने आचार्यश्री सान्निध्य में आमरण संथारा भी स्वीकार किया था । इस उपलक्ष में आचार्य श्री ने तीन लाख श्लोक माता साध्वी की पुण्य स्मृति में बनाये, एवं श्रावक संघ ने तीन करोड़ मुद्राएं पुण्य कार्य में व्यय की 1224 5.2.2 देमति गणिनी ( संवत् 1255 ) आप एक विशिष्ट प्रभावशालिनी साध्वी हुई हैं। पाटण (गुजरात) के अष्टापदजी के मंदिर में आपकी मूर्ति प्रतिष्ठित है, उस पर “ वि. संवत् 1255 कार्तिक वदि 11 बुधवार देमतिगणिनी मूर्ति ( : ) ।” लिखा हुआ है। प्रतिमा का चित्र इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में दिया गया है। 5.2.3 आर्या पद्मसिरि (संवत् 1276 ) खेड़ा जिला के 'मातरतीर्थ' (गुजरात) में सुमतिनाथ प्रभु के विशाल जिनालय में संगमरमर की एक प्रतिमा 'आर्या पद्मश्री' की है, उसके नीचे शिलालेख पर 'आर्या पद्मसिरि' वि. संवत् 1298' अंकित है। जिनालय प्रदक्षिणा की चोथी देरी में उक्त मूर्ति प्रतिष्ठित है। साध्वी पद्मश्री की 800 वर्ष प्राचीन यह प्रतिमा उस समय की है, जब किसी साधु प्रतिमा की भी प्रतिष्ठा नहीं की जाती थी, किसी-किसी युगप्रधान आचार्य की प्रतिमा ही प्रतिष्ठापित की जाती थी, ऐसे में साध्वी की मूर्ति का निर्माण उसके अलौकिक व्यक्तित्व को प्रगट करती है। आर्या पद्मसिरि का जन्म संवत् 1268 में खंभात के कोट्याधिपति श्रेष्ठी के यहाँ हुआ था। जब वे 8 वर्ष की थीं, तब एकबार दादाजी के साथ उपाश्रय में गुरू महाराज के दर्शनार्थ आईं, उनका तेजस्वी ललाट और सौम्य, शांत मुखाकृति को देखकर वहाँ विराजमान धर्ममूर्ति गुरू ने जिनशासन के लिये उस बालिका की माँग की। शासन की अतिशय प्रभावना का विचार कर परिवारीजनों ने पद्मश्री को गुरू महाराज के सुपुर्द कर दिया। 8 वर्ष की 222. डॉ. शिवप्रसाद, तपागच्छ का इतिहास, भाग 1 खंड 1, पृ.6 223. तदा च पाहिनी.... .......... तत्र चारित्रमादत्ता विहस्ता गुरुहस्ततः । प्रवर्तिनी प्रतिष्ठां च दापयामास नम्रगी ।। - प्रभावकचरिते, श्री हेमचन्द्रसूरि प्रबन्ध : 61, 62 224. मुनि ज्ञानसुंदर, भ. पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भाग 1, खंड 2, पृ. 1261 317 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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