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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
कन्या को दीक्षा देकर उसका नाम 'आर्या पद्मसिरि' रखा। आर्या पद्मसिरि के तेजस्वी आभामंडल से प्रभावित होकर श्राविकाओं व कन्याओं के झुंड के झुंड उनके पास दीक्षा के लिये आने लगा। अल्प समय में ही ये 700 शिष्याओं की गुरूणी बन गईं। ज्ञान का क्षयोपशम इतना स्पष्ट व निर्मल था कि गूढ़ से गूढ तत्त्वज्ञान को वे सरल रूप में समझा देती थीं। सूरि महाराज ने इन्हें क्रमशः 'प्रवर्तिनी' और फिर 'महत्तरा' पद से अलंकृत किया। 28 वर्ष की कुल उम्र में 20 वर्ष संयम व चारित्र का पालन कर ये संवत् 1296 में समाधि पूर्वक स्वर्गवासिनी हुई। इन असीम उपकारों की स्मृति में संभवतः उनके 2 वर्ष पश्चात् संवत् 1298 में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई।25 प्रतिमा का चित्र इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में दिया गया है।
5.2.4 धर्मलक्ष्मी महत्तरा (संवत् 1491)
आनन्द मुनि ओसवंशी ने संवत् 1577 में मंडवु (मांडवगढ़) में धर्मलक्ष्मी महत्तरा भास 53 पद्यों में लिखा। उसके अनुसार धर्मलक्ष्मीजी ओसवाल वंश के पिता मेलाई (मेलूय) एवं माता 'रामवि' की कन्या थीं। 7 वर्ष की अल्पायु में ही संयम ग्रहण करने की बलवती भावना देखकर श्री रत्नसिंहसूरि ने इन्हें संवत् 1491 में दीक्षा प्रदान की। आप रत्नचूला महत्तरा की शिष्या बनीं। आपने 11 अंगों का अध्ययन किया, छ: भाषाओं की ज्ञाता बहुश्रुती एवं संयमनिष्ठ जीवन को देखकर संवत् 1571 में देलवाड़ा में 'महत्तरा' पद पर स्थापित किया।26 वि. संवत् 1516 में लिखी गई उत्तराध्ययन की एक प्रति से ज्ञात होता है, कि वह रत्नसिंहसूरि की शिष्या थीं, उनके पठनार्थ उक्त प्रति लिखी गई थी।27 ऐतिहासिक लेख संग्रह के अनुसार वि. संवत् 1507 स्तम्भतीर्थ (खंभात) में बृहत्तपागच्छ के ज्ञानसागरसूरि रचित 'विमलचारित्र' महाकाव्य में भी आपका संस्मरण किया है। इन्हें ग्रंथकार ने “स्वर्णलक्ष जननी, प्रवीणा, विधिसंयुता, सरस्वती सदृश" कहकर स्तुति गान किया है।28 5.2.5 श्री राजलक्ष्मी (संवत् 1493)
ये पोरवाड़वंशीय गेहा की पत्नी विल्हणदे की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। श्री जिनकीर्तिसूरि की आप बहिन थीं। तथा तपागच्छीय श्री 'शिवचूला महत्तरा' की शिष्या थीं। आपकी संवत् 1493 की देलवाड़ा (मेवाड़) में रचित "शिवचूलागणिनी विज्ञप्ति' गाथा 20 श्री नाहटा जी ने काव्य-संग्रह में प्रकाशित की है। शिवचूलागणिनी को 1493 में महत्तरा पद प्रदानोत्सव पर शाह महादेव संघवी ने बड़ा उत्सव किया था। शिवचूला गणिनी का चरित्र इस विज्ञप्ति में वर्णित है।229 225. पाठशाला, पुस्तक 36, आ. प्रद्युम्नसूरि, 703 नूतन विलास भटारमार्ग, सूरत, जुलाई, 2003 226. पय नमी दीधैं खमासणूं ए, सासणदेव प्रसन्न। संवत् चउद एकाणूइए, जाणूं बहु परिजंग।। 181
-ऐ. जै. गुर्जर काव्य संचय, पृ. 215-220 227. डॉ. शिवप्रसाद, तपागच्छ का इति, पृ. 231 228. ऐति. ले. सं., पृ. 339 229. कुंवर गुण भंडारूए 'जिनकीरतिसूरि सा वीरूए। 'राजलच्छी' बहन तसु नामुए, लीह पवतणि करूँ पणामुए ___-'नाहटा', ऐति. जै. काव्य संग्रह, पृ. 339, 40, कलकत्ता
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