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________________ प्रथम अध्याय पूर्व पीठिका में अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति की महत्ता, श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता बताते हुए भारत के विभिन्न धर्मों में संन्यस्त स्त्रियों का वर्णन एवं जैन धर्म में दीक्षित श्रमणियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही जैनधर्म में दीक्षित श्रमणियों की योग्यता, आचार संहिता, दीक्षा महोत्सव की विधि, जीवनचर्या आदि के साथ जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन स्रोत पर भी विचार किया गया है। इसी अध्याय में शोध का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कला एवं स्थापत्य में श्रमणियों का अंकन व दुर्लभ प्राचीन 44 चित्रों का भी समावेश है, जो ईसा की प्रथम शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक विभिन्न स्थलों से सम्बन्धित हैं। द्वितीय अध्याय में जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास बताकर तीर्थकरकालीन श्रमणियों के नाम, संख्या एवं मान्यता भेद को स्पष्ट किया गया है। मुख्य रूप से इस अध्याय में प्रागैतिहासिक काल से प्रारम्भ कर अर्हत् पार्श्वनाथ के काल तक की श्रमणियाँ, आगम व आगमिक व्याख्या-साहित्य तथा पुराण एवं कथा-साहित्य में उल्लिखित कुल 360 श्रमणियों का संक्षिप्त इतिहास चित्रित हुआ है। तृतीय अध्याय में महावीर और महावीरोत्तरकालीन उन 109 श्रमणियों का वर्णन है, जो प्रचलित गच्छों से भिन्न वीर निर्वाण एक से पन्द्रहवीं सदी तक हुई, इन श्रमणियों का इतिहास श्वेताम्बर परम्परा मान्य ग्रंथों में उपलब्ध होता है। चतुर्थ अध्याय दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा भेद, दिगम्बर परम्परा का आदिकाल, दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्त्व तथा यापनीय एवं भट्टारक परम्परा की श्रमणियों का जैन संघ में स्थान दर्शाते हुए विक्रम की आठवीं से इक्कीसवीं सदी तक की 319 श्रमणियों के व्यक्तित्त्व के विशिष्ट गुणों एवं तप त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला गया है। पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियों से अनुगुंफित है। विक्रम संवत् 1080 से इक्कीसवीं सदी तक के एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास में इस परम्परा की सैंकड़ों धाराएँ निकलीं और परस्पर एक दूसरे में विलीन हुईं, उनमें खरतरगच्छ, तपागच्छ, त्रिस्तुतिक, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, आगमिकगच्छ तथा पार्श्वचन्द्रगच्छ की कुल 3221 श्रमणियों का उपलब्ध विवरण प्रस्तुत अध्याय में सुरक्षित है। षष्ठम अध्याय में स्थानकवासी परम्परा की कुल 2361 श्रमणियों का दिग्दर्शन है। इस अध्याय में स्थानकवासी परम्परा का उद्भव, नामकरण, लुंकागच्छीय श्रमणियाँ तथा स्थानकवासी परम्परा में हुए मुख्यतः छः क्रियोद्धारकों की श्रमणियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक कालक्रम में श्रृंखलाबद्ध करके प्रस्तुत किया गया है। अन्त में हस्तलिखित ग्रन्थों से प्राप्त श्रमणियों का भी उल्लेख है। सप्तम अध्याय में तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ विक्रम संवत् 1821 से अद्यतन पर्यन्त वर्णित हुई हैं। इस परम्परा की कुल 1719 श्रमणियाँ एवं 116 समणियों का परिचय प्रस्तुत अध्याय में समाविष्ट है। (xliit) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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