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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.117 श्री लक्ष्मादे (संवत् 1740)
आचार्य आनंदवर्धन का 'अर्हन्नकरास' (संवत् 1702 की रचना) बावरा में मुनि गणेश ने संवत् 1740 में आर्या लक्ष्मादे के पठनार्थ लिखा। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (पोथी 13 नं. 139) में है। 32 5.1.118 आर्या राजश्री (संवत् 1740)
बृहद्खरतरगच्छीय आनंदवर्धन के 'अर्हन्नकरास' को संवत् 1740 में गणि विनयानंद ने धारानगरी में साध्वी राजश्री के वाचनार्थ लिपि किया। यह प्रति 'विजयधर्म लक्ष्मी लायब्रेरी वेलनगंज आगरा में है।133
5.1.119 श्री सज्जनाजी (संवत् 1762)
साध्वी सरूपा की शिष्या साध्वी सज्जनां के पठनार्थ बृहत्खरतगच्छ के सागरचन्द्रसूरि की परम्परा के सुखहेम ने संवत् 1762 में 'चतुर्विंशति जिन स्तवन' की प्रति लिखकर प्रदान की, यह प्रति मोहनलाल दलीचंद देसाई महावीर जैन विद्यालय मुंबई के संग्रह भंडार में है। 34
5.1.120 श्री राजसिद्धि गणिनी (संवत् 1775)
संवत् 1775 में साध्वी राजसिद्धि गणिनी की पादुका श्राविकाओं द्वारा करवाने का उल्लेख प्राप्त होता है। 35 5.1.121 श्री भावसिद्धि (संवत् 1780)
खरतरगच्छ भट्टारक श्री जिनधर्मसूरि के गच्छ की साध्वी श्री भावसिद्धि की पादुका उनकी शिष्या जयसिद्धि द्वारा प्रतिष्ठित करवाई गई।।36 5.1.122 श्री लाडमदेवीजी (संवत् 1781)
जिनमाणिक्यसूरि शाखा के सुगुणतिलक के शिष्य मुनि आसकर्ण द्वारा संवत् 1781 में अजमेर नगर में 'पुण्यसार रास' लिखकर साध्वी लाडमदेजी को देने का उल्लेख है। यह प्रति विजय नेमीश्वर ज्ञान मंदिर खंभात (नं. 4498) में संग्रहित है।137 5.1.123 श्री मानसिद्धि, विनयसिद्धि, लक्ष्मीसिद्धि (संवत् 1783)
संवत् 1783 फाल्गुन शु. 5 के शुभ दिन भट्टारक श्री जिनभक्तिसूरि ने श्री मानसिद्धि, श्री विनयसिद्धि एवं श्री लक्ष्मीसिद्धि को दीक्षा प्रदान की। ये क्रमशः श्री जीवसिद्धि, श्री भामा व श्री जीवाजी की शिष्याएँ बनीं।।33 132. जै. गु. क., भाग 4, पृ. 67 133. जै. गु. क., भाग 4, पृ. 67 134. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 110 135. बी. जै. ले. सं. लेख सं. 1417, पृ. 293 136. वही, लेख सं. 51 137. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 122 138. ख. दी. नं. सूची, पृ. 123
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