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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2047 में समाधि पूर्वक कैंसर की असह्य वेदना को सहकर कालधर्म को प्राप्त हुईं। संयममार्ग पर गतिशील इनकी कई शिष्याएँ प्रशिष्याएँ हैं - मृदुता श्रीजी 280, सुज्ञताश्रीजी, भाविताश्रीजी, हितप्रज्ञाश्रीजी, हर्षपूर्णाश्रीजी, विश्वप्रज्ञाश्रीजी, विश्वज्ञाश्री, रम्यप्रज्ञाश्री, रत्नप्रज्ञाश्री, वर्धमान श्रीजी, सुजेताश्रीजी, हर्षिता श्रीजी, विशुद्धप्रज्ञाश्रीजी आदि | 281 5.3.1.15 श्री विद्याश्रीजी ( संवत् 1991 से वर्तमान) माता साध्वी अंजनाश्री एवं पिता श्री हंससागरसूरिजी के अनासक्त जीवन से संस्कारित विद्याश्रीजी संवत् 1991 फाल्गुन कृष्णा 13 को लघु भ्राता ( श्री नरेन्द्रसागर मुनि) के साथ दीक्षित हुईं। आधे घंटे में 50 गाथाएं स्मृति में रख सकने की क्षमता से संपन्न साध्वी का अनेक आगम-ग्रंथों में निष्णात होना स्वाभाविक ही था। साढ़े 12 वर्ष तीव्र कर्मोदय की स्थिति में भी इनके द्वारा रचित गीत, गहुंली, दोहे आदि 'विद्यासंगीत सरिता' भाग 1 से 3 तक प्रकाशित हो चुके हैं, चित्रकला, व्याख्यान कला में भी ये गणनीय स्थान पर हैं। इस प्रकार विद्याश्रीजी ने अपने नाम को तो सार्थकता प्रदान की ही साथ ही जिनशासन की भी उल्लेखनीय सेवा की है। 282 5.3.1.16 श्री राजेन्द्र श्रीजी ( संवत् 1992 से वर्तमान ) विक्रम संवत् 1972 अहमदाबाद के 'मास्तर' अमृतलालभाई व मेनाबाई की सुपुत्री रूप में सुख्यात 'तारा' वात्सल्यमूर्ति तिलकश्रीजी के सान्निध्य में त्याग के मार्ग पर संवत् 1992 वैशाख शुक्ला 4 को अग्रसर होकर 'राजेन्द्र श्री' नाम को प्राप्त हुई। अध्यात्म का गहन अध्ययन करने के साथ ही इन्होंने वर्धमान आयंबिल तप की 100 ओली पूर्ण की, पुनः इसी तप को प्रारंभ कर 20 तक ओली की, साथ में वर्षीतप सिद्धीतप, पाँचतिथि उपवास, नवपद ओली आदि निरन्तर तप धर्म में संलग्न रहीं। इनके बाह्य व आभ्यंतर तप से आकर्षित होकर कई मुमुक्षु आत्माएँ साधना पथ पर आरूढ़ हुईं। इनकी निम्नलिखित विदुषी शिष्या - प्रशिष्याएँ हैं शिष्याएँ - कारुण्यश्रीजी, शुभोदया श्रीजी, सुलक्षणाश्रीजी, लक्ष्यज्ञाश्रीजी । पौत्र शिष्याएँ- विनयधर्माश्रीजी, गुणरत्नज्ञाश्रीजी, 283 सोमयशाश्रीजी, कल्परेखा श्रीजी, विश्वहिताश्रीजी, हृदयंगमा श्रीजी । प्रपौत्र शिष्याएँ - प्रियधर्माश्रीजी, सौम्यवदनाश्रीजी, जयनशीलाश्रीजी, तक्षशीला श्रीजी, यशोधर्माश्रीजी, दमितधर्माश्रीजी, नीतिधर्माश्रीजी, जितधर्माश्रीजी | 284 इनकी शिष्याओं में कई उग्रतपस्विनी हैं। विनयधर्माश्रीजी ने मासक्षमण, वर्धमानतप की 100 ओली की साथ ही श्रेणीतप व 500 आयंबिल भी किये। प्रियधर्माश्रीजी ने भी वर्धमान तप की 100 ओली, पुनः 12 ओली, सिद्धितप श्रेणीतप, वर्षीतप 500 आयंबिल तथा सिद्धाचलजी, तलाजा तथा गिरनार की 99 यात्राएँ की । शुभोदया श्रीजी मासक्षमण, 500 आयंबिल, एकान्तर, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दशदोय तप संपन्न कर चुकी हैं। हृदयंगमा श्रीजी ने श्रेणीतप, सिद्धितप तथा 500 आयंबिल किये। जयनशीला श्रीजी ने भी एकांतर 500 आयंबिल किये। यशोधर्माश्रीजी ने, 5,7,8,30 उपवास, दो वर्षीतप, वर्धमान तप की 54 से ऊपर ओली, वीसस्थानक, 280. विशेष परिचय तालिका में देखें 281. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 185 282. वही, पृ. 234-36 283. इनका परिचय तालिका में देखें। 284. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 180 Jain Education International 348 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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