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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साध्वियाँ आचार्य जितेन्द्रसूरीश्वरजी की हैं। विजय राजेन्द्रसूरिजी के समुदाय में प्रवर्तिनी श्री रंजनश्रीजी, श्री रोहिणाश्रीजी, श्री रोहिताश्रीजी, श्री इन्द्रश्रीजी आदि समर्थ, विदुषी एवं तपस्विनी साध्वियाँ हुई हैं, जिनका विशाल श्रमणी परिवार ज्ञान-ध्यान, उत्तम चारित्र और विशिष्ट गुणों के कारण अपना अलग ही महत्त्व रखता है, उन श्रमणियों की उपलब्ध जीवन गाथाएँ इस प्रकार हैं - 5.3.3.1 प्रवर्तिनी रंजनश्रीजी (संवत् 1985-2045) स्तम्भनपुरतीर्थ में दलपतभाई के यहाँ संवत् 1970 में इनका जन्म हुआ। दीक्षा की आज्ञा में बाधा उपस्थित होने पर ये स्वयं गुप्त रीति से सकरपुर तीर्थ में संवत् 1985 माघ शुक्ला 5 चिन्तामणि पार्श्वनाथ के सम्मुख साध्वी वेष धारण कर प्रवर्तिनी चन्द्रश्रीजी की शिष्या बनीं इन्होंने अपने जीवन में ज्ञान-भक्ति व तप तीनों की विशिष्ट रूप से उपासना की थी। 8 शिष्या और 46 प्रशिष्या परिवार की ये प्रवर्तिनी थीं। प्रवर्तिनी रोहिताश्रीजी, इन्द्रश्रीजी आदि इनकी विदुषी शिष्याएँ हैं। संवत् 2045 में ये स्वर्गस्थ हुईं।17 5.3.3.2 प्रवर्तिनी इन्द्र श्रीजी (संवत् 1995- ) _स्तंभनपुर के धर्मिष्ठ सुश्रावक वाडीलाल तथा परशनबहन की सुपुत्री इन्द्रश्री वैराग्य से ओतप्रोत होकर श्री रंजनश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हुई। समता, क्षमता व समाधि इनके जीवन का मूलमंत्र है। विशाल श्रमणी संघी की प्रवर्तिनी होकर भी निस्पृहता और निरभिमानता में ये अद्भुत हैं।18 5.3.3.3 .प्रवर्तिनी रोहिणाश्रीजी (संवत् 2002-44) स्तंभनपुरतीर्थ के श्रेष्ठी नगीनदासभाई व मणिबहन के यहाँ संवत् 1970 में इनका जन्म हुआ। 14 वर्ष की लघुवय में विवाह होने पर 10 मास में ही ये पति की मृत्यु के पश्चात् संसार से विरक्त हो गईं। किंतु विरोध के वात्याचक्र का सामना करते-2 बत्तीस वर्ष की उम्र में स्वजनों से आज्ञा प्राप्त हुई, पश्चात् संवत् 2002 वैशाख कृष्णा 10 के दिन प्रव्रज्या अंगीकार कर श्री कल्याणश्रीजी की शिष्या बनीं। उल्लेखनीय विशेषता रही कि इन्होंने 42 वर्ष संयम पाला और 42 मुमुक्षु बालाओं को श्रमणी दीक्षा प्रदान कर जिनशासन को अर्पित किया। इनका साहस व संकल्प बल इतना मजबूत था कि एकबार तपाराधना करते हुए 62 वर्ष की उम्र में 8 मास में 3 हजार कि. मी. की पदयात्रा की। संवत् 2044 को अमलनेर में ये स्वर्गस्थ हुईं।19 5.3.3.4 प्रवर्तिनी रोहिताश्रीजी (संवत् 2002- स्वर्गस्थ) अमदाबाद की पुण्य धरा पर जन्मी रोहिताश्रीजी बचपन में ही माता, पिता और रि पति का वियोग देखकर संसार से विरक्त हो गईं, संवत् 2002 वैशाख शुक्ला 11 के शुभ दिन बड़ोदरा में श्री कल्याणश्रीजी की शिष्या बनकर निष्कंटक ज्ञान एवं साधना में प्रगति करती गईं। स्वभाव की भद्रिकता सरलता व आत्म साधना में 317. 'श्रमणीरत्नो' पृ. 333 318. वही, पृ. 337-38 319. वही, पृ. 339 370 370 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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